जिरेनियम की खेती (Geranium Cultivation): इस नयी तकनीक से घटी लागत, जल्दी तैयार होती है पैदावार

उत्तर प्रदेश के सम्भल, बदायूँ, कासगंज जैसे कई ज़िलों में CSIR-CIMAP की ओर से विकसित नयी विधि से जिरेनियम की खेती की जा रही है। जानिए क्या है नयी तकनीक और कैसे किसानों को हो रहा इससे फ़ायदा।

जिरेनियम की खेती geranium farming

जिरेनियम का वैज्ञानिक नाम ‘पिलारगोनियम ग्रेवियोलेन्स’ है। ये मूलरूप से अफ्रीका का पौधा है। इसका तेल इतना गुणकारी है कि इसका उपयोग पूरी दुनिया में असंख्य हर्बल उत्पादों, जैविक दवाईयों और एरोमा-थेरेपी में किया जाता है। जिरेनियम के तेल की पूरी दुनिया में माँग रहती है। जिरेनियम की खेती मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, बिहार, हिमाचल प्रदेश और उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में की जा सकती है। उत्तर प्रदेश के सम्भल, बदायूँ, कासगंज जैसे कई ज़िलों में CSIR-CIMAP की ओर से विकसित नयी विधि से जिरेनियम की सफल खेती की जा रही है।

35 रुपये से 2 रुपये हुई पौधा तैयार करने की लागत

CSIR-CIMAP, लखनऊ ने 8-9 साल की मेहनत के बाद 2018 में जिरेनियम की खेती के लिए ऐसी तकनीकी विकसित की, जिससे इसकी लागत में भारी गिरावट आ गयी। आमतौर पर जिरेनियम के पौधों से ही उसकी नयी पौध तैयार की जाती है। बारिश में पौधों के खराब हो जाने की वजह से किसानों को जिरेनियम के पौधे काफ़ी महँगे पड़ते थे। लेकिन नयी तकनीक की बदौलत अब सिर्फ़ दो रुपये में जिरेनियम का नया पौधा तैयार किया जा सकता है, जबकि पहले इसकी लागत करीब 35 रुपये बैठती थी।

जिरेनियम की खेती geranium farming

जिरेनियम की खेती (Geranium Cultivation): इस नयी तकनीक से घटी लागत, जल्दी तैयार होती है पैदावारप्रति एकड़ करीब 16 हज़ार पौधों की ज़रूरत

पहले जिरेनियम की पौधों को सुरक्षित रखने के लिए एयर कंडीशंड (वातानुकूललित) ग्लास हाउस की ज़रूरत पड़ती थी। लेकिन अब पॉलीहाउस की ‘सुरक्षात्मक शेड तकनीक’ विकसित हो जाने से किसान अपने खेतों पर ही ख़ासी कम लागत में इसे तैयार कर सकते हैं। जिरेनियम की खेती के लिए प्रति एकड़ करीब 16 हज़ार पौधों की ज़रूरत पड़ती है। इसके लिए 50-60 वर्ग मीटर का पॉलीहाउस बनाना होता है। इसमें करीब 8-10 हज़ार रुपये का खर्च आता है। 

CSIR-CIMAP भी मुहैया करवाता है पौधे

पॉलीहाउस या पॉलीथीन से बनाये गये ‘सेमी प्रोटेक्टिव शेड’ के ज़रिये जिरेनियम की खेती को बढ़ावा देने के लिए CSIR-CIMAP अपने ‘अरोमा मिशन’ के तहत किसानों को पौधे भी उपलब्ध करवा रहा है, जिससे नये पौधों की नर्सरी यानी ‘प्लांटिंग मैटेरियल’ तैयार होता है। ‘सेमी प्रोटेक्टिव शेड’ ऐसा सुरक्षित आशियाना है, जहाँ बरसात का पानी न तो भर सके और ना ही बारिश की बौछारें सीधे जिरेनियम के पौधों पर पड़े।

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जानिए क्या है ‘सेमी प्रोटेक्टिव शेड’

‘सेमी प्रोटेक्टिव शेड’ को किसान के पास मौजूद बाँस-बल्ली की मदद से 200 माइक्रोन की पारदर्शी पॉलीथीन से तैयार करते हैं। इसके ऊपर का एक मीटर का हिस्सा खुला रखते हैं ताकि बारिश के पानी से बचाव के साथ ही पौधों के लिए हवा का आवागमन होता रहे। इसे ऊँचे खेत में बनाया जाता है या फिर ज़मीन पर मिट्टी भरकर और ऊँचा चबूतरा बनाकर उस पर बनाते हैं। जिरेनियम के पौधों को खेत में डेढ़ से दो फ़ीट के फ़ासले पर रोपते हैं।

जिरेनियम की खेती geranium farming
तस्वीर साभार: tribuneindia

जिरेनियम के लिए मिट्टी और मौसम

दोमट और बलुई दोमट मिट्टी में जिरेनियम की फसल बढ़िया होती है। जिरेनियम को सिंचाई की कम ज़रूरत  पड़ती है। इसकी खेती का सबसे उपयुक्त समय नवम्बर से जून माना जाता है। कृषि वैज्ञानिक डॉ. सौदान सिंह के मुताबिक, CSIR-CIMAP में सुगन्धित फसलों के तहत मेंथाल के विकल्प के रूप में जिरेनियम को भी बढ़ावा देने की कोशिश की जा रही है। 

जिरेनियम के पौधों को बरसात से बचाना बहुत ज़रूरी है क्योंकि बरसात से बचाये गये पौधों से ही अक्टूबर से नर्सरी तैयार करना शुरू करते हैं। जिरेनियम की खेती के लिए नर्सरी में विकसित पौधों की रोपाई नवम्बर से फरवरी के दौरान की जा सकती है। लेकिन वैज्ञानिक फसल चक्र के हिसाब से फरवरी को ही मुफ़ीद वक़्त मानते हैं। पुरानी विधि में लागत इसलिए भी बहुत थी क्योंकि पहले नर्सरी में जहाँ 85 फ़ीसदी पौधे ही पनप पाते थे, वहीं नयी विधि में यही अनुपात 95 फ़ीसदी तक का होने लगा है।इस लेख के दूसरे भाग में हम आपको देश में जिरेनियम की खेती की वर्तमान स्थिति और संभावनाओं के बारे में बताएंगे।

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