पांच साल पहले सिर्फ 15 भेड़ों से भेड़ पालन का ‘क ख ग’ सीखने वाले मुश्ताक अहमद मलिक आज न सिर्फ भेड़ों की ब्रीडिंग कर उनकी नस्ल में सुधार करने की कोशिश कर रहे हैं बल्कि टेक्सल (texel ) और डोरपर (dorper ) आदि विदेशी नस्लों वाली भेड़ों के मुकाबले की नस्ल तैयार करने का सपना भी देखने लगे हैं। भेड़ों की ये शानदार नस्लें नीदरलैंड , आस्ट्रेलिया , दक्षिण अफ्रीका और कनाडा जैसे देशों की हैं जिनका वज़न न सिर्फ 100 किलो तक हो जाता है बल्कि उसका 85 फीसदी गोश्त के तौर पर इस्तेमाल होने लायक भी है। भेड़ पालन के अपने नवीनतम व्यवसाय में ऐसा बड़ा सपना देख पाने की क़ाबिलियत 38 साल के मुश्ताक ने अपने अंदर खुद विकसित की। इसकी बदौलत कुछ वर्षों में ही उन्होंने 200 भेड़ों की क्षमता वाला शीपफ़ार्म विकसित कर लिया है। वैज्ञानिक तरीके और स्थानीय सामग्री के इस्तेमाल से बने इस फ़ार्म में फिलहाल 125 से 140 भेड़ें रहती हैं।
छात्र जीवन में की गई विज्ञान की पढ़ाई और दवा कंपनी में काम करने का अनुभव कश्मीर के पुलवामा ज़िले के डारनाडी – मुशपना गांव के मुश्ताक अहमद मलिक के काफी काम आया। 2014 में बी एस सी और फिर एम एड करने के बाद जब सरकारी स्कूल में टीचर की नौकरी नहीं लगी तब मुश्ताक ने मेडिकल रिप्रजेंटेटिव के तौर पर एक दवा कंपनी में नौकरी की और फिर 2016 में गुजरात की जेनेटिक फार्मा की फ्रेंचाइजी लेकर व्यापार शुरू कर दिया। काम अब भी ठीक चल रहा है और 32 कनाल क्षेत्र में उनके बाग़ भी हैं, लेकिन नया करने और ज्यादा धन कमाने की इच्छा मुश्ताक को दूसरी ही दिशा में ले गई। ये था भेड़ पालन (sheep rearing ) और इस बारे में उनके पहले गुरु उनके वही एक मित्र थे जिन्होंने खुद भी भेड़ पालन का व्यवसाय किया हुआ था। मित्र का अनुभव मुश्ताक के खूब काम आया। ये काम उन्होंने 1 लाख 75 हज़ार रूपये से शुरू किया।
मुश्ताक अहमद मलिक ने 2017-18 के बीच 13 मादा और 2 नर भेड़ों से शीप फार्मिंग की शुरुआत की। ये कश्मीर मेरिनो नस्ल की भेड़ें थीं। पहली भेड़ की बिक्री की बात पूछने पर ही मुश्ताक उत्साहित होकर बात करने लगते हैं। वो कहते हैं , ‘ साल भर के अंदर ही उन्होंने पालकर बड़ी की पहली भेड़ 19500 रुपये में बेची और वो भी सरकार को यानि भेड़ और पशुपालन विभाग को.’ ये उनके लिए कोई उपलब्धि हासिल करने से कम नहीं था। धीरे-धीरे मुश्ताक को भेड़ पालन के गुर आने लगे। वे खुद ही भेड़ों का इलाज करने लगे। रोग का पता लगाने से लेकर निदान के लिए दवा देने तक और इंजेक्शन लगाने तक। इसमें उनकी विज्ञान की पढ़ाई और मेडिकल पेशे से जुड़ा अनुभव बहुत काम आया। दो साल बाद ही उन्होंने घर के बगल वाली ज़मीन पर नया शीपफार्म बनाया। इसमें 10 लाख रुपये की लागत आई। इस पैसे में उन्होंने 125 भेड़ भी खरीदीं और उनको सरकारी योजना के मुताबिक़ साढ़े चार लाख रुपये कि सब्सिडी भी मिली। अब इसके बूते वो साल में 7 लाख रुपया कमाते हैं। यही नहीं दो कर्मचारियों को रोज़गार भी दिया हुआ है जिनको वे 10 हज़ार रूपये महीना वेतन देते हैं। अब थोड़ा काम और बढ़ा कर मुश्ताक तीसरा कर्मचारी भी रखने की सोच रहे हैं। मुश्ताक इसे भी अपने काम की एक उपलब्धि मानते हुए कहते हैं, ‘मुझे संतुष्टि इस बात की है कि मुझे मुनाफा तो हो ही रहा है, मैं अन्य लोगों को रोज़गार देने का ज़रिया भी बन रहा हूं ‘।
भेड़ पालन और ब्रीडिंग के ज़रिये तो मुश्ताक को आमदनी होती ही है, भेड़ों का गोबर भी उनके बहुत काम आ रहा है। उन्होंने दो हिस्सों में भेड़ों को रखने का जो फ़ार्म बनाया है उसके दो ताल हैं। ऊपर के ताल पर 4 हिस्सों में अलग अलग श्रेणी (परिस्थिति वाली) की भेड़ें रहती हैं। मसलन छोटे बच्चों वाली भेड़ों को उनके मेमनों के साथ बाड़े में रखा जाता है, गर्भवती भेड़ों को एक बाड़े में और तीसरे बाड़े में वो भेड़ें रखी जाती हैं जो प्रेगनेंसी की एडवान्स्ड स्टेज पर होती हैं। चौथे बाड़े में उन मादा भेड़ों को नर भेड़ों के साथ रखा जाता है जो तब गर्भ धारण कराने योग्य हों। ऊपर के इस ताल का फर्श कीकर की लकड़ी की पट्टियों से बना है। इन पट्टियों की बीच में कुछ सेंटीमीटर का फासला है ताकि भेड़ का त्यागा मल-मूत्र फर्श पर जमा न हो और फर्श की झिर्रियों से नीचे जा गिरे। इसके दो फ़ायदे हैं। एक तो ये कि मल-मूत्र उस स्थान पर जमा नहीं होता जहां बाड़े में भेड़ें रहती हैं। इससे बदबू और गन्दगी नहीं होती है। साथ ही भेड़ों में बीमारी या कोई संक्रमण फैलने का खतरा भी कम हो जाता है। दूसरा फायदा ये कि नीचे के तल पर जमा भेड़ों का मल-मूत्र एक तरह की खाद में तब्दील हो जाता है। ये खाद उनके सेब के बागान में काम आती है। भेड़ के गोबर की खाद इन बागानों के लिए बहुत फायदेमंद मानी जाती है।
मुश्ताक बताते हैं कि उनके फ़ार्म में भेड़ के मल-मूत्र की खाद की बात करें तो ये साल भर में 1800 क्यूबिक स्क्वेयर फीट होती है, जिसकी कीमत लगभग 1 लाख रुपये के आसपास होगी। तकरीबन हर भेड़ के गोबर से भरा ट्रैक्टर-ट्रॉली यहां 6000 रूपये में बिकता है जिसमें लगभग 100 फुट गोबर होता है। उनके बाड़े में साल भर में तकरीबन 1800 फुट गोबर जमा होता है, लेकिन भेड़ बकरियों के कुछ फ़ार्म में जालीदार विदेशी फर्श लगाए गए हैं जो लकड़ी के फर्श से बेहतर दिखाई देते हैं। मुश्ताक का कहना है कि साधारण तापमान वाले स्थानों पर वो फर्श लगाना ठीक है लेकिन कश्मीर में तापमान कम ही रहता है। गर्मी के दिन कम होते हैं और सर्दी के ज्यादा। लकड़ी का फर्श ज्यादा ठंडा नही होता है। फर्श ज्यादा ठंडा होने पर भेड़ों का गर्भपात हो जाता है। लकड़ी का फर्श होने से इसका खतरा कम हो जाता है। भेड़ें आराम से रहती हैं और स्वस्थ भी। इससे भेड़ उत्पादन भी बढ़ता है।
मुश्ताक अहमद को भेड़ पालन के काम में उनकी पत्नी रूहेला मुजीद भी सहयोग करती हैं। रूहेला को इनके छोटे छोटे मेमने बहुत पसंद हैं। जब दो नस्लों को क्रॉस करके नतीजे के रूप में भेड़ का सुन्दर बच्चा पैदा होता है तो परिवार के लोगों की दिलचस्पी भी बढ़ती है और ख़ुशी भी। रूहेला मेमनों की देखभाल करते हुए उनसे मोह कर बैठती है। रूहेला कहती है कि जब कोई मेमना या भेड़ बिकती है तब आमदनी तो होती है लेकिन उसके बिछड़ने से दिल भी दुखता है। उधर मुश्ताक अहमद की दिलचस्पी इस व्यवसाय में इतनी बढ़ गई है कि वो एक प्रजनन विज्ञानी या विशेषज्ञ जैसे हो गए हैं। कहते हैं कि वो अच्छी से अच्छी नस्ल के भेड़ पैदा करना चाहते हैं लेकिन यहां आसपास ऐसी प्रयोगशाला की सुविधा नहीं है। काफी समय से अच्छी भ्रूण विज्ञान प्रयोगशाला (embryology laboratory) लगाने की बात हो रही है। अगर ये सुविधा मिल जाए तो भेड़ नस्ल सुधार कार्यक्रम में बहुत कुछ किया जा सकता है।
कश्मीर में पहले भेड़ पालन मुख्य रूप से ऊन के लिए होता था क्योंकि ठंडा इलाका होने के कारण ऊनी व गर्म कपड़ों की ज्यादा मांग होती थी। साथ ही भेड़ का दूध भी लोग पीते थे। काफी लोग भेड़ का गोश्त भी खाते थे। कालांतर में सरकार की योजनाएं ऐसी रही हैं कि यहां ऊन की बजाय भेड़ों का गोश्त के लिए पालना फायदे का सौदा होने लगा। कश्मीर में गोश्त की मांग इतनी है कि यहां पैदा होने वाली भेड़ों का मांस भी कम पड़ने लगा। लिहाज़ा जम्मू कश्मीर में इसकी खपत की पूर्ति के लिए पड़ोसी राज्यों से लेकर राजस्थान तक से भेड़ें मंगाई जाने लगीं। अब भेड़ पालक की कोशिश भेड़ का ज्यादा से ज्यादा वजन बढ़ाने की होती है। इसलिए वे ऐसी नस्लों की पैदाइश में दिलचस्पी लेते हैं जो ज्यादा वजन की हों जिससे उनकी कीमत भी अच्छी मिले। ऐसी ही एक नस्ल कोरिडेल (corriedale) भी है जो काफी मात्रा में ऊन देती है। साथ ही उसमें गोश्त भी काफी होता है। मुश्ताक बताते हैं कि इस नस्ल की एक भेड़ का वज़न 100 किलो तक का भी हो सकता है। ऐसी ही एक भेड़ उन्होंने 1 लाख रूपये में बेची थी। इसे पालकर बड़ा करने में उनको दो साल लगे थे। भेड़ की ऊन उतारकर बेचने में अब कश्मीर में कोई फायदा नहीं होता है। बल्कि भेड़ के जिस्म से उतारी गई ऊन के बराबर पैसा तो उस आदमी को देना पड़ता है जो मशीन से ऊन उतारता है।
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