बाजरा देश की प्रमुख खाद्दान फसल है, जिसका इस्तेमाल खाने के साथ ही चारे के रूप में भी किया जाता है। बाजरे को सूखे और हरे चारे दोनों ही तरह से इस्तेमाल किया जाता है। बाजरे को ग्रामीण इलाकों में मोटा अनाज और गरीबों का भोजन माना जाता है, लेकिन अब इसके फ़ायदे को देखते हुए सभी जगह इसकी मांग बढ़ने लगी है।
शुष्क क्षेत्रों में बाजरे की खेती की जाती है जहां किसान खेती के साथ पशुपालन पर भी निर्भर है। ऐसे में वह बाजरे का भूसा चारे के रूप में पशुओं को देते हैं। बाजरे की खेती आमतौर पर किसान पारंपरिक तरीके से करते थे, जिससे उत्पादकता और लाभ कम होने के साथ ही बारिश के पानी की भी बर्बादी होती थी। मगर एक नई तकनीक अपनाकर किसानों ने न सिर्फ़ बाजरे की उत्पादकता बढ़ाई, बल्कि वह बरसात के पानी की बर्बादी रोकने में भी सफल रहे।
बरसात में की जाती है खेती
बाजरे की खेती मुख्य रूप से बारिश के मौसम में सीमांत भूमि में कम लागत से की जाती है और इसमें खरपतवार नियंत्रण एक मुख्य चुनौती है। हालांकि, इसके लिए हर्बीसाइड्स (herbicides) उपलब्ध हैं, लेकिन इसका मिट्टी, फसल, पर्यावरण आदि पर बुरा प्रभाव पड़ता है। चूंकि बाजरा चारा फसल भी है, इसलिए किसान हर्बीसाइड्स के उपयोग से बचना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें डर है कि इसका जानवरों के स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ सकता है।

नई तकनीक का विकास
बाजरे की उत्पादकता बढ़ाने के लिए उचित खरपतवार प्रबंधन के साथ ही, वर्षा जल के संचयन और ऊर्चा की बचत वाली तकनीकों के विकास की ज़रूरत है। ऐसे में मध्य प्रदेश के चंबल ज़िले में, फार्मर फर्स्ट प्रोग्राम (FFP) परियोजना के तहत वर्षा जल संरक्षण के साथ-साथ खरपतवार प्रबंधन, उत्पादकता बढ़ाने आदि में रिज फेरो तकनीक के साथ लेजर लेवलिंग के प्रभाव का अध्ययन किया गया।
बुवाई के 25 दिन बाद 40 सेंटीमीटर की दूरी पर ट्रैक्टर ऑपरेटेड रिज फरो तकनीक के साथ लेज़र लेवलिंग के इस्तेमाल से फ़ायदा हुआ। पारंपरिक तकनीक और खरपतवार प्रबंधन के लिए केमिकल युक्त पद्धति की तुलना में रिज फरो तकनीक कई गुना असरदार साबित हुई। 2017 से किसानों के खेत में फार्मर्स फर्स्ट प्रोजेक्ट के तहत इस तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है।

बढ़ी उत्पादकता
बाजरे की बुवाई जुलाई के पहले और दूसरे हफ़्ते में की गई और प्रति हेक्टेयर 3-4 किलो बीज बोया गया। कृषि विशेषज्ञों की सलाह पर किसानों ने अमल किया और नई तकनीक को अपनाया। बाजरे की फसल में शुरुआत में ही बारिश का पानी पड़ जाने से फसल जल्दी परिपक्व हो गई। खरपतवार नियंत्रण की मौजूदा FP तकनीक की तुलना में रिज फरो पद्धित अधिक कारगर रही। खरपतवार नियंत्रण के साथ ही वर्षा जल संचयन करने वाली इस नई तकनीक के इस्तेमाल से उत्पादकता 18 प्रतिशत तक बढ़ी, जिससे कसानों को प्रति हेक्येटर करीबन 13,095 रुपये का मुनाफ़ा हुआ। साथ ही इससे पानी की उत्पादकता भी FP पद्धति की तुलना में 33.1% तक बढ़ी। चंबल इलाके में यह नई तकनीक अब काफ़ी लोकप्रिय हो चुकी है और सभी बाजरा किसान अधिक उत्पादन और मुनाफ़े के लिए इसे अपना रहे हैं। नई तकनीक से उत्पादन की लागत भी कम हो जाती है।
यह है रिज एंड फेरो तकनीक?
इस पद्धति से फसल बोने के लिए एक विशेष प्रकार की सीड ड्रिल का उपयोग किया जाता है, जिसमें बुवाई करते समय बीचों-बीच एक मेड़ बनाई जाती है। इस सीड ड्रिल से बीज मेड़ के ऊपर बोए जाते हैं। इससे बीज भी सामान्य बुवाई की तुलना में कम लगता है और पैदावार भी अधिक होती है। अधिक बारिश होने पर फसल के गलने का खतरा भी नहीं रहता क्योंकि बरसात का पानी मेड़ों के बीचों बीच बनी नालियों से होकर खेत के बाहर निकल जाता है। पौधा एक फीट की दूरी पर लगा होने से मजबूत होता है, जिससे तेज़ हवा या आंधी आने पर पौघा ज़मीन पर सुरक्षित रहता है।
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