सौंफ (Fennel), एक ऐसा शानदार और ख़ुशबूदार मसाला है जिसे न सिर्फ़ तमाम पकवानों और अचार वग़ैरह में बहुतायत से इस्तेमाल किया जाता है बल्कि इसे चबाकर भी खाया जाता है। भारत में सौंफ की खेती मुख्यतः राजस्थान, गुजरात तथा उत्तरप्रदेश में होती है। ऐसे विविध उपयोग और अपने आयुर्वेदिक तथा औषधीय गुणों की वजह से बाज़ार में सौंफ भी माँग ख़ूब रहती है। तमाम मसालों की तरह सौंफ भी एक नकदी फसल है और इसकी उन्नत किस्मों से लागत के मुक़ाबले पौने दो गुना से लेकर ढाई गुना ज़्यादा कमाई होती है।
रबी और ख़रीफ़, दोनों की फसल है सौंफ
सौंफ़ की खेती को रबी और ख़रीफ़ दोनों मौसम में किया जा सकता है। अलबत्ता, सौंफ मुख्यतः समशीतोषण जलवायु की फसल है। यानी, शुष्क और ठंडा मौसम सौंफ की खेती के लिए सबसे उपयुक्त है, क्योंकि फसल की बीजाई और पकते समय हल्का गर्म वातावरण उत्तम रहता है। सौंफ की खेती की ये भी विशेषता है कि रेतीली या बलुआ ज़मीन के अलावा अन्य सभी किस्म की भूमि में इसकी खेती की जा सकती है, बशर्ते इसमें जीवांश की मात्रा पर्याप्त हो।
उचित जल निकास वाली रेतीली-दोमट, चूनायुक्त दोमट और काली मिट्टी में सौंफ की उपज सबसे ज़्यादा मिलती है। भारी और चिकनी मिट्टी की अपेक्षा दोमट मिट्टी सौंफ की खेती के बेहतर होती है। सौंफ की बुआई किसी भी तरीके से हो सकती है। यानी, चाहें छिड़काव विधि हो या कतार-बद्ध बुआई या फिर नर्सरी में पौधों तैयार करके उनकी रोपाई से। सौंफ की खेती में कटाई के वक़्त का ख़ासा महत्व होता है, क्योंकि सौंफ के दाने गुच्छों में आते हैं और एक ही पौधे के सभी गुच्छे एक साथ नहीं पकते। इसीलिए सौंफ की कटाई एक साथ नहीं हो सकती।
क्यों महँगी होती है लखनवी सौंफ?
सौंफ के फूल ग़ुलाबी-सफ़ेद रंग के होते हैं। फूल खिलने के महीने भर बाद इनमें सौंफ के हरे-हरे पतले दाने या बीज दिखाई पड़ने लगते हैं। ये हरे-हरे दाने क़रीब दो से तीन हफ़्ते तक परिपक्व होते हैं। ये दानों का यौवन काल होता है। यदि इसी वक़्त सौंफ के दानों को काट लिया जाता है तो इसका ज़्यादा दाम मिलता है, क्योंकि ये सौंफ की बारीक अवस्था होती है। इसे चबाकर खाने के लिए बेहद उम्दा माना जाता है। सौंफ की इसी अवस्था को लखनवी सौंफ कहते हैं।
लखनवी सौंफ का रंग जहाँ हल्के हरे रंग का होता है, वहीं मसाले वाली सौंफ के दानों के रंग में पीलापन भरपूर होता है। मसाले के रूप में इस्तेमाल होने वाली सौंफ के मुकाबले लखनवी सौंफ महँगी होती है। क्योंकि चबाकर खाने वाली उत्तम किस्म की सौंफ के दानों का आकार और वजन इसकी पूर्ण विकसित अवस्था की तुलना में क़रीब आधा होता है। उन्नत खेती करें तो प्रति हेक्टेयर 10 से 15 क्विंटल तक हरे दानों वाली पूर्ण विकसित मसाले वाली सौंफ की उपज हासिल होती है। जबकि महीन लखनवी सौंफ की पैदावार प्रति हेक्टेयर 5 से 7.5 क्विंटल तक आसानी से मिलती है।
छाया में सूखती है लखनवी सौंफ
लखनवी सौंफ के उत्पादन के लिए सौंफ के हरे दानों के गुच्छों की कटाई करके उसे साफ़ और छायादार जगह में फैलाकर सुखाया जाता है। ताकि हरे दानों का रंग पीला नहीं पड़े। सूखाते समय दानों को बार-बार पलटते रहना चाहिए वर्ना फफूँद लगने की ख़तरा रहता है। मसाले वाली सौंफ की भी उत्तम पैदावार के लिए फसल को ज़्यादा पककर पीला नहीं पड़ने देना चाहिए। जैसे ही दानों का रंग हरे से पीला होने लगे इसके गुच्छों को तोड़ लेना चाहिए।
सौंफ के दानों के पीला पड़ने की अवस्था उनके परिपक्व होने का प्रतीक है। ये अवस्था फूल खिलने के लगभग दो महीने बाद आने लगती है। हालाँकि, किसी भी पौधे पर बीज के सारे गुच्छे एक ही बार पीले नहीं होते इसीलिए सौंफ की फसल को तीन-चार बार तोड़ना पड़ता है। पूरी तरह से पक चुके यानी पीले पड़ चुके सौंफ के दानों को ही अगली फसल के लिए बीज के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए।
सौंफ की उन्नत किस्में ही चुनें
सौंफ को लम्बी अवधि की फसल माना जाता है। इसकी बुआई के लिए शरद ऋतु में अक्टूबर से नवम्बर के प्रथम सप्ताह का वक़्त बढ़िया माना गया है। जनवरी से मार्च तक का शुष्क और सामान्य ठंडा मौसम सौंफ की उपज और गुणवत्ता के लिए बहुत लाभदायक रहता है। फूल आने के समय पौधों को पाले की मार से बचाना ज़रूरी है। ठंड के दिनों में लम्बे समय तक बादल छाये रहने या नमी के ज़्यादा होने से भी सौंफ पर बीमारियों के प्रकोप बढ़ सकता है।
सौंफ की उन्नत किस्में जहाँ 140 से 160 दिनों में पकती हैं, वहीं कुछेक किस्में 200 से 225 दिनों का वक़्त भी लेती हैं। जैसे S7-2, PF-35, गुजरात सौंफ-1 और CO-1. इससे 10-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की उपज मिलती है। इसीलिए सौंफ की खेती को ज़्यादा लाभदायक बनाने के लिए किसानों को कम वक़्त में ज़्यादा उपज देने वाली किस्मों का ख़ासतौर पर ख़्याल रखना चाहिए। मसलन, जैसी किस्में 200-225 दिनों में पककर तैयार होती हैं।
जल्दी पकने और ज़्यादा उपज वाली किस्में
जोधपुर कृषि विश्वविद्यालय के विशेषज्ञों के अनुसार, RF 125, RF 143 और RF 101 नामक किस्में सौंफ के किसानों के लिए बेहद मुफ़ीद साबित हुई हैं। इन्हें साल 2005 से 2007 के बीच विकसित करके किसानों को सुलभ करवाया गया है।
RF 125 (2006) – इस किस्म के पौधे कम ऊँचाई के होते हैं। इनका पुष्पक्रम संघन, लम्बा, सुडौल और आकर्षक दानों वाला होता है। यह किस्म शीघ्र पकने वाली है। इसकी औसत उपज 17 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।
RF 143 (2007) – इस किस्म के पौधे सीधे और ऊँचाई 116-118 सेमी होती है। जिस पर 7-8 शाखाएँ निकली हुई होती है। इसका पुष्पक्रम संघन होता है। प्रति पौधा अम्बल की संख्या 23-62 होती है। यह किस्म 140-150 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसकी औसत उपज 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। इसमें 1.87 प्रतिशत वाष्पशील तेल पाया जाता है।
RF 101 (2005) – यह किस्म दोमट और काली कपास वाली भूमि के लिए उपयुक्त है। यह 150-160 दिन में पक जाती है। पौधे सीधे और मध्यम ऊँचाई वाले होते हैं। इसकी औसत उपज क्षमता 15-18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। इसमें वाष्पशील तेल की मात्रा 1.2 प्रतिशत होती है। इस किस्म रोग प्रतिरोधक क्षमता ज़्यादा है और इसमें तेला कीट का हमला कम होता है।
खेत की तैयारी
सौंफ की खेती के लिए खेत को 15 से 20 सेंटीमीटर गहरी जुताई करके मिट्टी को भुरभुरा बना लेना चाहिए। जुताई के वक़्त यदि खेत में पर्याप्त नमी न हो तो पलेवा देकर तैयारी करनी चाहिए। जुताई के बाद पाटा चलाकर खेत को समतल करके सिंचाई की सुविधानुसार क्यारियाँ बनानी चाहिए।
खाद और उर्वरक
सौंफ की फसल की अच्छी बढ़वार के लिए भूमि में पर्याप्त जैविक पदार्थ का होना आवश्यक है। इसके लिए आख़िरी जुताई के वक़्त प्रति हेक्टेयर 10 से 15 टन अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद खेत में डालना चाहिए। इसके अलावा फसल को प्रति हेक्टेयर 90 किलो नाइट्रोजन और 40 किलो फ़ॉस्फोरस भी देना चाहिए। 30 किलो नाइट्रोजन और फास्फोरस की पूरी मात्रा खेत में अन्तिम जुताई के समय डालना चाहिए। शेष नाइट्रोजन को दो भागों में बाँटकर बुआई के 45 दिन बाद और नत्रजन फूल आने के समय फसल की सिंचाई के साथ देना चाहिए।
जैविक पोषक तत्व प्रबन्धन – सौंफ में जैविक पोषक तत्व प्रबन्धन के लिए शत-प्रतिशत सिफ़ारिश की गयी नाइट्रोजन और गोबर की खाद के साथ एजेटोबेक्टर तथा फ़ॉस्फोरस विलयकारी जीवाणु जैसे जैव उर्वरक की 5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर मात्रा, 250 किलोग्राम जिप्सम और 250 किलोग्राम तुम्बा की खली को खेत में डालना चाहिए। नाइट्रोजन की बाक़ी मात्रा को फसल बचाव के लिए नीम आधारित उत्पाद एन्टोमोफेगस फफूँद अथवा बायोपेस्टीसाइड अथवा वानस्पतिक उत्पाद अथवा गौशाला उत्पाद और प्रीडेटर के साथ उपयोग किया जाना चाहिए।
बीज की मात्रा और बुआई – सौंफ की खेती के लिए बुआई अधिकतर छिटकवाँ विधि से की जाती है। लेकिन बुआई को रोपण विधि से सीधे कतारों में भी करते हैं। छिटकवा विधि में प्रति हेक्टेयर 8 से 10 किलोग्राम स्वस्थ और उन्नत किस्म का बीज पर्याप्त होता है, जबकि रोपण विधि में 3 से 4 किलो बीज पर्याप्त होता है। बुआई से पहले कारबेंडेजिम 2 ग्राम प्रति किलोगाम बीज के हिसाब से बीजोपचार करना ज़रूर करना चाहिए।
रोपण विधि में जुलाई-अगस्त में 100 वर्ग मीटर क्षेत्र में नर्सरी लगाई जाती है तथा मध्य सितम्बर से मध्य अक्टूबर तक पौधों का रोपण किया जाता है। रोपण दोपहर बाद गर्मी कम होने पर करें और तुरन्त सिंचाई करें। कतार-बद्ध बुआई के लिए 40-50 सेंटीमीटर की दूरी पर हल के पीछे कूड़ में 2-3 सेंटीमीटर की गहराई में बीज डालना चाहिए। सीधी बुआई के 7-8 दिन बाद दूसरी हल्की सिंचाई करें, ताकि अंकुरण आसानी से हो सके।
सिंचाई – सौंफ की फसल को नियमित सिंचाई की आवश्यकता होती है। बुआई के समय खेत में नमी कम हो तो बुआई के तीन चार दिन बाद हल्की सिंचाई करनी चाहिए। ताकि बीज ठीक से जम सकें। सिंचाई के वक़्त ध्यान रखें कि पानी का बहाव तेज़ नहीं हो, वर्ना बीज बहकर खेत के किनारों पर जमा हो जाएँगे। सर्दियों में 15-20 दिन के अन्तर पर सिंचाई करनी चाहिए। ध्यान रखें कि फूल आने के बाद फसल को पानी की कमी नहीं होनी चाहिए।
निराई-गुड़ाई – सौंफ के पौधे जब 8-10 सेंटीमीटर के हो जाएँ तब गुड़ाई करके खरपतवार निकाल दें। गुड़ाई के वक़्त जहाँ पौधे ज्यादा हों, वहाँ से कमज़ोर पौधों को निकालकर अन्यत्र रोप दें। पौधों के बीच 20 सेंटीमीटर की दूरी होने से उनकी बढ़वार अच्छी होती है। फूल आने के समय पौधों पर हल्की मिट्टी चढ़ा दें और आवश्यकतानुसार खरपतवार निकालते रहें। सौंफ की खेती में एक किलो पेन्डीमिथेलिन सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर 750 लीटर पानी में घोलकर बुआई के 1 से 2 दिन बाद छिड़काव करके भी खरपतवार नियंत्रण किया जा सकता है।
प्रमुख कीट और बीमारी
मोयला, पर्णजीवी (थ्रिप्स) और मकड़ी (बरुथी) – मोयला कीट पौधे के कोमल भाग से रस चूसता है। इससे फसल को काफ़ी नुकसान पहुँचाता है। थ्रिप्स कीट बहुत छोटे आकार का होता है तथा कोमल और नयी पत्तियों से हरा पदार्थ खुरचकर खाता है। इससे पत्तियों पर धब्बे दिखाई देने लगते हैं तथा पत्ते पीले होकर सूख जाते हैं। मकड़ी छोटे आकार का कीट है जो पत्तियों पर घूमता रहता है और उसका रस चूसता है। इससे पौधा पीला पड़ जाता है।
इन कीटों पर नियंत्रण के लिए डाईमिथोएट 30 EC या मैलाथियॉन 50 EC की एक मिलीलीटर मात्रा को प्रति लीटर पानी या एसीटामाप्रिड 20 प्रतिशत SP की 100 ग्राम मात्रा को प्रति हेक्टेयर के हिसाब से घोल बनाकर छिड़कना चाहिए। यदि आवश्यक हो तो यह छिड़काव 15 से 20 दिनों बाद दोहराना चाहिए।
छाछ्या (पाउडरी मिल्ड्यू) – रोग के लगने पर शुरू में पत्तियों और टहनियों पर सफ़ेद चूर्ण दिखायी देता है जो बाद में पूरे पौधे पर फैल जाता है। नियंत्रण के लिए प्रति हेक्टेयर 20-25 किलोग्राम गन्धक के चूर्ण का भुरकाव करना चाहिए या डाइनोकेप LC की 1 मिलीलीटर मात्रा का प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। आवश्यकतानुसार 15 दिन के अन्तराल पर इस छिड़काव को दोहराना चाहिए।
जड़ और तना गलन – गलन रोग के प्रकोप से तना नीचे से मुलायम हो जाता है और जड़ गलने लगती है। जड़ों पर छोटे-बड़े काले रेशे नज़र आते हैं। नियंत्रण के लिए बुआई से पूर्व बीज को कारबेंडेजिम 2 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से बीजोपचार कर बुआई करनी चाहिए या कैप्टान 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसाब से खेत को उपचारित करना चाहिए।
कटाई और भंडारण
सौंफ के गुच्छों के पकने पर इसकी कटाई सुबह के समय करनी चाहिए क्योंकि इस समय बीज कम झड़ते हैं। बीजों को हल्की छड़ी से झाड़कर अलग किया जाता है। इन्हें छाया में सुखाया जाता है। सभी छत्रकों के बीज एक समय पर नहीं पकते इसलिए सौंफ की कटाई 3-4 बार करनी पड़ती है। फिर बीजों से भूसे को अच्छी तरह से साफ़ करके ही तैयार उपज को बाज़ार में पहुँचाना चाहिए। अच्छी रंगत, ख़ुशबू और नमी वाले उपज को ही बाज़ार में बढ़िया दाम मिलता है। सुखाये गये बीजों को नमी अवरोधी डिब्बों या लिफ़ाफ़ों में रखना चाहिए, ताकि अगली बुआई के वक़्त बीजों की अंकुरण क्षमता प्रभावित नहीं हो।
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