कंकोड़ा या कंटोला या मीठा करेला या जंगली करेला – ये एक ऐसी सब्जी है जो अपने अनुपम औषधीय गुणों के लिए जानी जाती है। इसे जंगली करेला या वन करेला इसलिए कहा गया क्योंकि किसी ज़माने में इस सब्जी को न तो उपजाया जाता था और ना ही इसका बीज मिलता था। इसके नर और मादा पौधों की बेल अपने बीजों से ख़ुद पनपती थी और बरसात के मौसम में हाट-बाज़ारों से होने हुए अपने क़द्रदानों की थाली में पहुँचती थी। लेकिन आज कंकोड़ा की व्यावसायिक खेती छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखंड, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल में होती है।
बाज़ार में किसानों को कंकोड़ा का बढ़िया दाम मिलता है, क्योंकि ये अन्य सब्ज़ियों के मुक़ाबले ख़ासी महँगी यानी 100 से 150 रुपये प्रति किलोग्राम के भाव से बिकती है। व्यावसायिक खेती करने पर कंकोड़ा की हरेक बेल से क़रीब 650 ग्राम या क़रीब 50 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की पैदावार मिल सकती है। इन्दिरा कंकोड़ा -1 और इन्दिरा अगाकारा (RMF-37) किस्मों का इसकी व्यावसायिक खेती में सबसे ज़्यादा इस्तेमाल होता है। इन्हें इन्दिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर ने विकसित किया है। दोनों को ही उत्कृष्ट और रोग प्रतिरोधी किस्म माना गया है।
कंकोड़ा का परिचय
आमतौर पर मॉनसून में बहुतायत से मिलने वाला कंकोड़ा एक हरी, गोलमटोल और काँटेदार रेशे वाली सब्जी है। इसे मीठा करेला भी कहा जाता है, क्योंकि इसका स्वाद करेले के स्वाद से काफ़ी मिलता-जुलता होता है, लेकिन करेले के कड़वेपन के मुक़ाबले कंकोड़ा का कड़वापन बहुत हल्का होता है। इसे अँग्रेज़ी में Spine gourd or Agakara कहते हैं और वनस्पति विज्ञान में इसे ‘मोमोरेख डाईगोवा’ कहा गया है। ये लौकी वाले कुल का पौधा है और अपने बीज के अलावा कन्द अथवा कटिंग से भी विकसित किया जाता है।
जनमानस में कंकोड़ा की पहचान करेले की जंगली प्रजाति के रूप में है। इसे अनेक नाम से जाना जाता है। जैसे – मीठा करेला, कँटीला परवल, काकरोला, भाट करेला, कोरोला, करटोली, ककोड़ा, कंकोड़ा, कटोला, पपोरा, खेखसा, वन करेला और जंगली करेला आदि। इस तरह किसी एक सब्जी के अनेक नाम के लिहाज़ से भी कंकोड़ा बेमिसाल है। व्यावसायिक खेती में अपनी जगह बनाने से पहले कंकोड़ा को जंगलों और खेतों की मेड़ पर अनायास उगने वाली लता और सब्जी के रूप में जाना जाता था।
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दरअसल, कंकोड़ा की बेल से शुरुआती दौर में पता नहीं लगता है कि वो नर पौधा या मादा पौधा। इनके लिंग की पहचान इसके पुष्पित होने पर ही हो पाती है, क्योंकि नर और मादा पौधे के फूल अलग-अलग होते हैं और अंडाकार फल यानी कंकोड़ा सिर्फ़ मादा पौधों पर ही लगते हैं। प्राकृतिक तौर पर कंकोड़ा के बीज पौधों में पकने के बाद ज़मीन में गिर जाते हैं और क़रीब 6 महीने तक सुसुप्तावस्था में रहने के बाद बरसात के मौसम में अपने आप अंकुरित हो जाते हैं। इसीलिए बारिश के मौसम कंकोड़ा की सब्जी बाज़ार में पहुँचा करती थी। कंकोड़ा की बेल धीरे-धीरे बढ़ती है। इसके पौधों की उम्र 3 से 4 महीने की होती है।
कालान्तर में जैसे-जैसे लोगों में कंकोड़ा के गुणों के प्रति जागरूकता बढ़ती गयी वैसे-वैसे इसकी माँग और दाम दोनों में तेज़ी आती गयी। कंकोड़ा के बीजों को देखकर ये पता लगाना मुश्किल होता है कि उसका पौधा नर होगा या मादा। इसीलिए सब्जी उत्पादकों को इसके प्रमाणिक बीजों का ही इस्तेमाल करना चाहिए। वैसे कंकोड़ा की बेल की गाँठ में इसकी जड़ का काम करती है, इसीलिए गाँठ के ज़रिये भी कंकोड़ा के पौधे विकसित किये जाते हैं। कंकोड़ा को शहरी घरों में भी गमलों में पैदा किया जा सकता है। कंकोड़ा का अचार भी बहुत स्वादिष्ट होता है। इसे तलकर, भूनकर, उबालकर और माँस-मछली में डालकर भी खाया जाता है।
कंकोड़ा के औषधीय गुण
कंकोड़ा, सेहत के लिए बेहद फ़ायदेमन्द है। इसमें कैलोरी बहुत कम होती है। फिर भी ये आयुर्वेद की ताक़तवर औषधि है। सौ ग्राम कंकोड़ा के सेवन से सिर्फ़ 17 कैलोरी ऊर्जा मिलती है। इसीलिए, ये वज़न घटाने में मददगार है। प्रोटीन, आयरन, कैल्शियम, फॉस्फोरस जैसे खनिजों और मोमोरेडीसिन तथा फाइबर से भरपूर कंकोड़ा से पाचन-प्रक्रिया भी बेहतर होती है। अपने एंटी-एलर्जिक और दर्द निवारक गुणों की वजह से कंकोड़ा का सेवन मौसमी सर्दी-खाँसी और एलर्जी को दूर करता है।
कंकोड़ा के सेवन से डायबिटीज़ के मरीज़ों का ब्लड ग्लूकोज़ लेवल कम होता है, क्योंकि ये प्लांट इंसुलिन से भरपूर है। हाई ब्लडप्रेशर और पेशाब सम्बन्धी बीमारियों में मामलों में भी कंकोड़ा बहुत कारगर दवा है। कंकोड़ा में बीटा कैरोटीन, ल्यूटिन और जेक्सैन्थिन जैसे अनेक फ्लेवोनोइड और एंटी ऑक्सीडेंट होते हैं। ये त्वचा के लिए सुरक्षात्मक कवच का काम करते हैं और इसकी रंगत निखारते हैं। कुछ ही पौधों में मिलने वाले फाइटोन्यूट्रिएंट्स का भी कंकोड़ा एक बड़ा स्रोत है। रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाले ये पदार्थ कुछ ही पौधों में मिलता है।
आँखों की रोशनी बढ़ाने, कैंसर की आशंका को घटाने, गुर्दे की पथरी को दूर करने, गर्भावस्था समबन्धी तकलीफ़ों और बवासीर के इलाज़ में भी कंकोड़ा के सेवन से फ़ायदा होता है। कंकोड़ा के नर और मादा पौधों को मिलाकर सेवन करने से जहरीले साँप का विष भी शरीर में से उतर जाता है। अपने औषधीय गुणों की वजह से भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा कंकोड़ा की खेती अब दुनिया भर में फैल गयी है। कंकोड़ा के बीजों से तेल भी निकाला जाता है। इसका इस्तेमाल पेंट और वार्निश उद्योग में होता है।
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कंकोड़ा की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु
कंकोड़ा की खेती के लिए कार्बनिक पदार्थों और जीवांश से भरपूर दोमट मिट्टी सर्वोत्तम है। इसे बलुई मिट्टी में भी उगाया जाता है। इसके लिए मिट्टी का पीएच स्तर 5.5 से 7 के बीच रहे तो बेहतर है। ये गर्म और नमी वाली ऐसी जलवायु में ख़ूब पनपते हैं जहाँ तापमान 25 से 40 डिग्री सेल्सियस के बीच रहता हो तथा सालाना 180-200 सेमी तक बारिश होती हो। पहाड़ी इलाकों में कंकोड़ा को जायद अथवा जुलाई-अगस्त वाले खरीफ़ मौसम में बोते हैं, जबकि मैदानी क्षेत्र में गर्मियों की पैदावार के लिए इसे जनवरी-फरवरी में बोया जाता है।
कंकोड़ा की बुआई
कंकोड़ा की बुआई से पहले खेत में 2-3 गहरी जुताई के बाद पाटा चलाना चाहिए। आख़िरी जुताई के समय खेत में 10-15 टन प्रति हेक्टेयर सड़ी गोबर खाद मिलाने से पैदावार शानदार मिलती है। बुआई के लिए दो क्यारियों के बीच एक मीटर की दूरी और दो पौधों के बीच आधा मीटर की दूरी उपयुक्त होती है। इसके बाद कंकोड़ा के बीजों को क्यारियों की मेड़ों पर करीब एक इंच की गहराई पर रखना चाहिए। बुआई के लिए अच्छी गुणवत्ता वाले बीज या कन्द को ही अपनाना चाहिए। बुवाई के पहले बीजों को उपचारित अवश्य करें और इन्हें गर्म पानी में रात भर भिगो दें। इसे अंकुरण अच्छा और जल्दी होगा तथा फसल का कवक रोगों से बचाव होगा। खेतों में उपयुक्त नमी रखने के लिए सिंचाई करें।
बुआई के 5-6 दिन वाले नन्हें पौधे अंकुरित होने लगते हैं। पौधों की बेल बढ़ने पर उन्हें उचित सहारा देने का इन्तज़ाम करें। बुआई के लिए प्रति एकड़ 1-2 किलोग्राम बीज पर्याप्त है। यदि कन्द वाली बुआई करें तो स्वस्थ पौधे का ऐसा कन्द चुने जिसका वजन 120-150 ग्राम हो और उसमें कम से कम 2 कलिकाएँ मौजूद हों। ऐसे कन्द बीजों को थायोयूरिया से उपचारित करके बोना चाहिए। यदि कटिंग वाली बुआई करें तो 2-3 गाँठों वाली पुरानी बेल से गहरी हरी कटिंग काटकर पहले इसे नर्सरी में उगाएँ और जड़े विकसित होने के बाद खेत में लगाएँ।
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कंकोड़ा की तुड़ाई
पौधों के अंकुरित होने के करीब महीने भर बाद कंकोड़ा का बेल इतनी बढ़ जाती है कि उस पर कलियाँ फूटने लगें। कुछ ही दिनों पर ये कलियाँ फूल में तब्दील हो जाती हैं और परागण की प्रकिया पूरी होने के बाद मादा बेल पर लगे फूलों पर कंकोड़ा का अंडाकार फल आकार लेने लगता है। फलों के उपयुक्त आकार लेने के बाद उन्हें मुलायम अवस्था में ही 2-3 दिनों के अन्तराल पर तोड़ते रहना चाहिए। इसके बाद पैदावार को बाज़ार भेजने का इन्तज़ाम करना चाहिए।
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