दुबली-पतली दरम्याने कद की 24 वर्षीया नीलोफर जान बेशक एक कश्मीरी गांव की साधारण सी लड़की दिखाई पड़ती हैं, लेकिन इसके सपने असाधारण हैं। सिर्फ़ दो साल में हासिल जानकारी और तजुर्बे के दम पर अगले स्तर की कामयाबी का सपना देखना शुरू कर दिया है। कश्मीर के पुलवामा ज़िले के डिग्री कॉलेज में बीएससी (मेडिकल) करते-करते सिर्फ़ सात दिन की ट्रेनिंग की बदौलत यहां मशरूम किसान बनने वाली पहली महिला हैं। नीलोफर का आत्मविश्वास सच में गज़ब का है। नीलोफर लाइब्रेरी साइंस में एमए भी कर रही हैं और दो साल में मशरूम की अपनी खेती को दोगुना करके 200 बोरियों से फसल भी ले रही हैं। ये सब अपने दम पर करने वाली नीलोफर अब 1000 बोरियों से मशरूम उत्पादन करना चाहती हैं। नीलोफर का सपना है कि उसका उगाया जो बटन मशरूम कश्मीर में बिक रहा है वो सरहद पार अन्य मुल्कों में भी निर्यात के ज़रिये पहुंचे।
छोटी शुरुआत
पुलवामा के गोंगू गांव के मोहम्मद इब्राहिम मलिक की 4 संतानों में से छोटी बेटी नीलोफर मेहनतकश किसान के साथ-साथ एक संवेदनशील और ज़िम्मेदार इंसान भी है। शायद यही वजह है कि कृषि विभाग ने उसके काम को देखते हुए मशरूम की 100 बोरियों वाली एक यूनिट और दे दी है। एक छात्र से किसान बनने की अपनी कहानी सुनाते हुए नीलोफर बताती हैं कि कॉलेज की पढ़ाई के आख़िरी दौर में कृषि विभाग ने मशरूम प्रशिक्षण का ऐलान किया तो इसके लिए फॉर्म भर दिया। अन्य 11 ने भी यही प्रशिक्षण लिया जिनमें छात्र-छात्राएं दोनों ही थे, लेकिन काम की शुरुआत इनमें से सिर्फ़ नीलोफर ने की। अगस्त 2020 में 15 हज़ार रूपये की लागत से कम्पोस्ट की 100 बोरियां स्पॉन (मशरूम का बीज) व अन्य सामग्री खरीदी। अपने छोटे से मकान की छत पर बनाए गए एक कमरे से शुरुआत की। बिना प्लास्टर वाली ईंट की दीवारों वाले इस कमरे में, एक बल्ब की रोशनी में, नीलोफर बोरियों में उगाई गई मशरूम सहजता से निकालती हैं। मशरूम की खेती के काम में होने वाली आमदनी की बात छेड़ने पर मुस्कुराते हुए बताती हैं कि अपनी छोटी सी बेवकूफी के कारण पहली फसल में थोड़ा नुकसान हो गया। बस एक रात की देरी की और जब सुबह फसल उतारने पहुंची तो देखा कि कई मशरूम का आकार बदल कर छतरी जैसा हो गया था। इस तरह 10-15 किलोग्राम फसल खराब हो गई है।
पहली कामयाबी का किस्सा
नीलोफर को पहली सफलता तब मिली जब एक ही बार में 24 किलो मशरूम पास के ही काकपोरा के एक होलसेलर ने खरीद ली। इससे हासिल रूपये निलोफर ने बड़ी बहन बिस्मिल्लाह की शादी में होने वाले खर्च में अपने योगदान के तौर पर पिता को दे दिए। तब 300 रुपये किलो के हिसाब से मशरूम बिकी थी। महीने भर बाद ही नीलोफर को सरकारी योजना का लाभ भी मिल गया। सारी लागत यानि 15 हज़ार रूपये उसे सब्सिडी के तौर पर मिले। नीलोफर बताती है कि खेती के लिए कम्पोस्ट की बोरियों समेत तमाम सामान कृषि विभाग की तरफ से ही दिलवाया गया था। सात किलोग्राम कम्पोस्ट की बोरी में तीन परत बनाई जाती हैं। पहली दो परतें तीन तीन किलो की और आख़िरी एक किलोग्राम कम्पोस्ट की होती है। हर एक परत के बाद स्पॉन बिछाए जाते हैं। हाथ वाले पम्प से पानी स्प्रे किया जाता है। पांच – छह दिन में पहली फसल तैयार हो जाती है। कुल मिलाकर एक बोरी से एक मशीन में 3 किलोग्राम के आसपास मशरूम निकल आती है। ये कम्पोस्ट गेहूं के भूसे , धान के भूसे , घोड़े की लीद की खाद और यूरिया आदि मिक्स करके तैयार की जाती है.
नीलोफर की प्रेरणा से 40 और मशरूम किसान बने
मशरूम उगाने में नीलोफर को मिली शानदार सफलता को देखते हुए इसी साल विभाग ने उसे 100 बोरियां और दिलवाई जो उसने दूसरे कमरे में एक यूनिट के तौर पर रखी हैं। इससे तो नीलोफर खुश हैं लेकिन कुछ आशंकित भी हैं। दरअसल, नीलोफर की कामयाबी को कृषि विभाग के अधिकारियों ने एक सफल पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर देखा है। इसके अच्छे नतीजे देख विभाग ने 40 लोगों को यही कारोबार करवाने के लिए प्रोत्साहित किया। अब इलाके में मशरूम उगाने वाले ज्यादा हो गए। मशरूम के दाम भी तकरीबन 50 प्रतिशत कम हो गए। यूं तो बाज़ार मंदा है ही, नीलोफर को लगता है कि ये काफी लोगों के काम शुरू करने के कारण पैदा हुए कम्पीटीशन से हुआ। अच्छी बात ये है कि नीलोफर को मशरूम के लिए ग्राहक खोजने के लिए जाना नहीं पड़ता है। होलसेलर या आसपास के सब्ज़ीवाले खुद ही घर से आकर ले जाते हैं। सब कुछ नकद होता है, जैसी जिसकी ज़रुरत होती है उसी हिसाब से मशरूम की मात्रा प्लास्टिक की ट्रांसपेरेंट थैली में पैक करके दी जाती हैं.
मशरूम निर्यात का प्लान
भविष्य की योजना के बारे में पूछने पर नीलोफर कहती हैं कि यहां बेचने से ज्यादा मुनाफा मशरूम का निर्यात करने में है। निलोफर चाहती हैं कि वर्तमान 200 बोरी को बढ़ाकर 1000 बोरी किया जाए। इसके लिए कृषि विभाग से सलाह की है लेकिन जगह कम है। इसके लिए घर के ऊपर वाले दूसरे हिस्से में बड़ा हॉल बनाना होगा। इसमें बड़ी चुनौती पैकिंग की भी है। विदेश भेजने के लिए वर्तमान प्लास्टिक पैकिंग नहीं चलेगी। उसके लिए मशरूम की canned पैकिंग करानी होगी। वर्तमान में 200 ग्राम की कैन पैकिंग कराने में ही 100 रुपये खर्च में आता है। इससे हालांकि मशरूम की कीमत और लागत काफी बढ़ जाती है लेकिन मशरूम 3 साल तक खराब नहीं होती है. भारत के बड़े शहरों में भी यहां आसानी से पहुंचाई जा सकेगी। विदेश में भेजने पर धन भी डॉलर या किसी और करेंसी में आएगा। नीलोफर बताती हैं कि कश्मीर में साल में दो बार मशरूम की फसल नए सिरे से लगाई जाती है। ये होता है अगस्त या फरवरी के महीने में। फरवरी में लगाई फसल का नतीजा अच्छा मिलता है क्योंकि इसके बाद मौसम गर्म होना शुरू होता है, अंकुरण जल्दी भी और ज्यादा भी होता है।
तापमान नियंत्रण एक चुनौती
पैकिंग के अलावा मशरूम में सबसे ज्यादा चुनौती तापमान है जो न तो ज्यादा बढ़ना चाहिए और न ही घटना। तापमान 14 से 17 डिग्री सेल्सियस रहना चाहिए। कश्मीर में क्योंकि मौसम सर्द ज्यादा रहता है इसलिए तापमान सही रखने के लिए हीटर लगाना पड़ता है। लिहाज़ा नीलोफर जब इस प्लान और कारोबार के मुद्दों पर चर्चा कर रही थी तब परिवार के बाकी सदस्य भी वहां बैठे थे। खास तौर से अपनी बेटी का ज्ञान, विचार और सपने जानकर उसके पिता मोहम्मद इब्राहिम का चेहरा तो खुशी से दमक रहा था। धन के साथ बेटी के इस काम से सम्मान और शोहरत भी मिली है। इससे उनको ज्यादा सुकून भी मिलता है।
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