मछली पालन व्यवसाय: RAS तकनीक से 30 गुना बढ़ेगा मछली उत्पादन, नीरज चौधरी से जानिए इस तकनीक के बारे में
10 साल तक कर सकते हैं एक ही पानी का इस्तेमाल
हरियाणा के करनाल ज़िले के नीलोखेड़ी गाँव के रहने वाले नीरज चौधरी सुल्तान फिश फ़ार्म चलाते हैं। उन्होंने मछली पालन में Recirculatory Aquaculture System (RAS) तकनीक अपनाई हुई है। क्या है ये तकनीक? इस पर नीरज चौधरी से किसान ऑफ़ इंडिया ने ख़ास बातचीत की।
आपने अब तक खुले तालाबों में मछली पालन की कई तकनीकें देखी होंगी, लेकिन अब इनडोर में नई तकनीकों के दम पर कम जगह में मछली पालन कर 8 से 10 गुना ज़्यादा मछली उत्पादन कर सकते हैं। आप इसका अंदाज़ा ऐसे लगा सकते हैं कि केवल 1200 गज ज़मीन में 60 टन मछलियों का उत्पादन लिया जा सकता है। क्या है ये तकनीक? इसपर किसान ऑफ़ इंडिया ने आधुनिक मछली पालक नीरज चौधरी से ख़ास बातचीत की।
हरियाणा के करनाल ज़िले के नीलोखेड़ी गाँव के रहने वाले नीरज चौधरी सुल्तान फिश फ़ार्म चलाते हैं। वो इस फिश फ़ार्म के को-पार्टनर हैं। उन्होंने Recirculatory Aquaculture System (RAS) तकनीक अपनाई हुई है।
कैसे बढ़ा सकते हैं मछलियों का 30 प्रतिशत तक उत्पादन?
नीरज ने मेकैनिकल इंजीनियरिंग की डिग्री ली हुई है। उनका परिवार पिछले 35 साल से मछली पालन व्यवसाय से ही जुड़ा रहा है। इसलिए शुरू से ही इस क्षेत्र से उनका लगाव था। इसलिए नीरज ने भी खुद के लिए यही पेशा चुना। उन्होंने मछली पालन को पूरी तरह आधुनिक ढांचे में ढाल दिया। अमेरिका से हाईटेक फिश फ़ार्मिंग की ट्रेनिंग ली। नई तकनीक को आज़माते हुए अपने फ़ार्म में रिसर्कुलेशन मेथड (Recirculation Method) से 30 गुना तक मछली उत्पादन बढ़ाया। उन्होंने बताया कि परम्परागत तकनीक में पहले प्रति क्यूबिक मीटर पानी में 2 से 3 किलो मछली उत्पादन होता था। अब RAS तकनीक से प्रति क्यूबिक मीटर पानी में 67 किलों मछली उत्पादन हो रहा है।
10 साल तक एक ही पानी का इस्तेमाल
नीरज ने जानकारी दी कि RAS तकनीक में मछलियों को आमतौर पर नियंत्रित वातावरण में इनडोर और आउटडोर टैंकों में पाला जाता है। इस तकनीक में कम पानी में हाई डेंसिटी तकनीक के साथ बहुत कम जगह की ज़रूरत होती है। पानी का बहाव निरंतर बनाए रखने लिए पानी के आने-जाने की व्यवस्था की जाती है। RAS एक ऐसी तकनीक है, जिसमें मैकेनिकल और बॉयोलोजिकल फिल्टर के इस्तेमाल से पानी के हानिकारक तत्वों को हटाकर पानी को फिर से मछली पालन के इस्तेमाल में लाया जाता है। इससे पानी की बर्बादी नहीं होती। इससे 10 साल तक एक ही पानी का इस्तेमाल किया जा सकता है। रिसर्कुलेटिंग सिस्टम पानी को रिसाइकिल करके फिल्टर से साफ करता है।फिर फिश कल्चर टैंक में पानी को वापस भेजता है। इस तकनीक का इस्तेमाल मछली की किसी भी प्रजाति को पालने के लिए किया जा सकता है। नीरज चौधरी कहते हैं कि जहां भूमि और पानी की कमी है, ऐसे शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में इस तकनीक का इस्तेमाल करके मछली उत्पादन लिया जा सकता है।
आरएएस में आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल
नीरज चौधरी का कहना है कि रिसर्कुलेशन एक्वाकल्चर प्रोजेक्ट में टेंपरेचर कंट्रोलर लगा होता है, जो खुद तापमान नियंत्रित करता है। सर्दी और गर्मी का असर मछलियों पर नहीं पड़ता। पहले जब तालाबों में मछली पालन होता था, तो प्रवासी पक्षी भी मछलियों को खा जाते थे। इस शेड के अंदर ऐसी समस्याएं किसानों के सामने नहीं आतीं। तालाब में एयर रेटर के ज़रिए ऊपर से पानी डाला जाता है, जिससे तालाब के पानी का ऑक्सीजन लेवल मेंटेन रहता है। इससे मछलियों का विकास भी अच्छा होता है। इस तकनीक में समय-समय पर तालाब के पानी को फिल्टर भी करते रहते हैं। पानी के पीएच मान पर नज़र रखने के लिए ख़ास तरह की स्ट्रिप का इस्तेमाल करते हैं, ताकि पानी की क्वालिटी मेंटेन रहे। बीमारियों से मछलियों को बचाने के लिए दवाओं का इस्तेमाल भी किया जाता है।

किसी भी परिस्थिति में मछली पालन
नीरज चौधरी कहते हैं कि व्यवसायिक रूप से मछली पालन में यह तकनीक काफ़ी फ़ायदेमंद है। उच्च गुणवत्ता वाली मछली का उत्पादन होता है। कीटों और जलवायु कारको का कम प्रभाव होता है। प्रतिकुल मौसम में मछलियों को आसानी से पाला जा सकता है। किसी भी तरह से मछलियां बाहरी प्रदूषण का शिकार नहीं होती। रीसर्क्युलेटिंग सिस्टम में कई फिल्टर डिज़ाइनस का उपयोग किया जाता है। सभी फिल्टरेशन का काम पानी से अपशिष्ट पदार्थ, अतिरिक्त पोषक तत्व और ठोस पदार्थ निकालना होता है।
कम समय में बंपर उत्पादन
नीरज चौधरी ने बताया कि मछलियों पर असर डालने वाले कई पैरामीटर्स को लगातार मॉनिटर किया जा सकता है। तापमान, ऑक्सीजन लेवल, और अमोनिया जैसे फैक्टर्स की क्या स्थिति है इसके लिए मशीने होती है। उन्होने कहा कि RAS सिस्टम का प्रबंधन मछलियों के फ़ीड की गुणवत्ता और मात्रा, और फिल्टरेशन पर बहुत अधिक निर्भर करता है। नीरज के अनुसार इसके तहत किसान साल में दो कार्प ले सकते हैं। एक बार बीज डालने के 6 महीने बाद बाज़ार में मछलियां बेचने के लिए तैयार हो जाती हैं। इस तकनीक से सिबास, चितल, देसी मंगूर झिंगा, नाइल, तपेलिया जैसी प्रजातियों की पैदावार ली जा सकती है।
कहीं से भी ऑपरेट कर सकते हैं फिश फ़ार्म
नीरज ने कहा कि आप इस तकनीक को कहीं से भी ऑपरेट कर सकते हैं। वक्त और ज़रूरत के मुताबिक अपने फ़ार्म की देखभाल कहीं से भी कर सकते है। मछलियों का भाव प्रजातियों के अनुसार 100 से लेकर 700 रुपये प्रति किलों तक रहता है। मॉडर्न फिश फ़ार्मिंग RAS तकनीक से अपने पारंपरिक मछली पालन को कई मायनों में आधुनिक बना सकते हैं और अपना मुनाफ़ा पहले की अपेक्षा कई गुना बढ़ा सकते हैं।

कितनी आती है लागत?
अगर इसकी लागत की बात करे तो 8 टैंक वाले RAS सिस्टम में 50 लाख रुपये, 6 टैंक वाले में 25 लाख रुपये और एक टैंक वाले में 7.5 लाख की लागत आती है। इसे लेकर केंद्र सरकार और राज्य सरकारों द्वारा सब्सिडी का प्रावधान भी है। इसमें 50 फ़ीसदी सब्सिडी राशि केंद्र सरकार द्वारा और अलग अलग राज्यों की राज्य सरकारें भी सब्सिडी देती हैं। किसान व्यक्तिगत समूह या FPO के ज़रिए RAS तकनीक को इस्तेमाल में ला सकते हैं।
सम्पर्क सूत्र: किसान साथी यदि खेती-किसानी से जुड़ी जानकारी या अनुभव हमारे साथ साझा करना चाहें तो हमें फ़ोन नम्बर 9599273766 पर कॉल करके या kisanofindia.mail@gmail.com पर ईमेल लिखकर या फिर अपनी बात को रिकॉर्ड करके हमें भेज सकते हैं। किसान ऑफ़ इंडिया के ज़रिये हम आपकी बात लोगों तक पहुँचाएँगे, क्योंकि हम मानते हैं कि किसान उन्नत तो देश ख़ुशहाल।

ये भी पढ़ें:
- सरोगेसी यानी भ्रूण स्थानांतरण तकनीक (Embryo transfer technology) से हुआ देश के पहले मारवाड़ी घोड़े का जन्मदेश में घोड़ों की संख्या में पिछले कुछ सालों में बहुत कमी आई है। इसीलिए वैज्ञानिक घोड़ों, खासकर देसी नस्ल के घोड़ों की संख्या बढ़ाने की दिशा में लगातार काम कर रहे हैं। इसी कड़ी में उन्हें भ्रूण स्थानांतरण तकनीक से एक बड़ी सफ़लता मिली है।
- रोटरी डिस्क ड्रिल (Rotary Disc Drill) – फ़सल कटाई के बाद पराली और अवशेष प्रबंधन का कारगर और दमदार उपकरणउत्तर भारत में फ़सल अवशेषों या पराली जलाना एक गंभीर समस्या है, जिससे मिट्टी और पर्यावरण दोनों को नुकसान होता है। इस समस्या से निपटने के लिए ICAR ने रोटरी डिस्क ड्रिल (RDD) मशीन बनाई है। इसकी मदद से बिना पराली जलाए, फ़सलों की सीधी बुवाई की जा सकती है।
- Mushroom Processing: कैसे होती है मशरूम की व्यावसायिक प्रोसेसिंग? जानिए घर में मशरूम कैसे होगा तैयार?मशरूम उत्पादक किसान यदि ख़ुद अपनी मशरूम का सेवन करना चाहें तो वो क्या करें? इन किसानों के लिए शहरों से प्रोसेस्ड मशरूम को ख़रीदकर लाना और फिर उसका इस्तेमाल करना व्यावहारिक नहीं होता। इसीलिए, यदि वो अपने घरों में ही मशरूम की प्रोसेसिंग करना सीख लें तो अपनी निजी ज़रूरतों के अलावा वो रिश्तेदारों और मेहमानों वग़ैरह को भी प्रोसेस्ड मशरूम मुहैया करवा सकते हैं।
- जानिए क्यों महाराष्ट्र की इस महिला किसान को लोगों ने दिया ‘लेडी प्लांट डॉक्टर’ का ख़िताब!महाराष्ट्र के अहमद नगर ज़िले की रहने वाली कविता प्रवीण जाधव का शुरू से ही खेती के प्रति लगाव था। उन्होंने किसानों की उत्पादकता को बढ़ाने और उन्हें लाभ पहुंचाने के लिए कई अहम कदम उठाए। आज उनके साथ कई महिला किसान जुड़ी हुई हैं।
- जानिए, क्यों अनुपम है बायोचार (Biochar) यानी मिट्टी को उपजाऊ बनाने की घरेलू और वैज्ञानिक विधि?बायोचार के इस्तेमाल से मिट्टी के गुणों में सुधार का सीधा असर फसल और उपज में नज़र आता है। इससे किसानों की रासायनिक खाद पर निर्भरता और खेती की लागत घटती है। लिहाज़ा, बायोचार को किसानों की आमदनी बढ़ाने का आसान और अहम ज़रिया माना गया है।
- कपास की खेती में फायदेमंद है स्पॉट फर्टिलाइज़र एप्लीकेटर का इस्तेमालकपास एक महत्वपूर्ण व्यवसायिक फसल है, जिससे किसान अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं। कपड़ा उद्योग के लिए तो कपास कच्चा माल प्रदान करता ही है, साथ ही इसके बीज से तेल भी बनाया जाता है। कपास की मांग हमेशा बाज़ार में बनी रही है, ऐसे में किसान स्पॉट फर्टिलाइज़र एप्लीकेटर का इस्तेमाल करके इसका उत्पादन बढ़ा सकते हैं।
- सब्ज़ी नर्सरी (Vegetable Nursery): असम के किसान जयंती मेधी ने मिट्टी रहित सब्ज़ियों की पौध तैयार कर खड़ा किया सफल नर्सरी उद्योगयदि रोपण सामग्री उच्च गुणवत्ता वाली हो तो सब्ज़ी नर्सरी में सब्ज़ियों की फसल भी अच्छी होती है। अपने इलाके में लोगों को बेहतरीन रोपण सामग्री मुहैया कराने के लिए जयंती मेधी ने एक अनोखा प्रयोग किया और बिना मिट्टी के ही विभिन्न सब्ज़ियों की पौध तैयार कर सफल उद्यम स्थापित कर लिया।
- चौलाई की खेती (Amaranth Cultivation): चौलाई की ये 10 उन्नत किस्में देती हैं अच्छी पैदावार, कई पोषक तत्वों से भरपूरचौलाई को औषधीय पौधा भी माना जाता है। ये इकलौता ऐसा पौधा है जिसमें सोने (gold) का अंश पाया जाता है। इसका जड़, तना, पत्ती और फल सभी उपयोगी हैं। चौलाई की खेती कर रहे किसानों के लिए कृषि वैज्ञानिकों ने इसकी कई किस्में ईज़ाद की हैं। आइए आपको बताते हैं उन किस्मों के बारे में।
- Amla Processing: आज आंवले की खेती के ‘मार्केटिंग गुरु’ हैं कैलाश चौधरी, ज़ीरो से शुरू किया था सफ़रकैलाश चौधरी पिछले 6 दशक से खेती कर रहे हैं। आंवले की खेती ने उन्हें देश-दुनिया में पहचान दी है। कैलाश चौधरी कहते हैं खेती से बड़ा और कोई काम नहीं है। इसमें अपार संभावनाएं हैं।
- Vegetable Nursery: सब्जियों की नर्सरी में इनोवेटिव तकनीक का इस्तेमाल, मणिपुर के इस युवा ने ईज़ाद किया तरीकासब्जियों के बीज बहुत नाज़ुक होते हैं और उन्हें अधिक देखभाल की ज़रूरत होती है। इसलिए अधिकांश सब्जियों की पौध पहले नर्सरी में तैयार की जाती है, फिर खेत में उन्हें लगाया जाता है। मणिपुर के एक किसान ने नर्सरी में गुणवत्तापूर्ण सब्जियोंकी पौध तैयार करने के लिए एक नई तकनीक ईज़ाद की है, जिससे उनका मुनाफा बढ़ गया। सब्जियों की नर्सरी में कैसे ये तकनीक कारगर हो सकती है, जानिए इस लेख में।
- Kathiya Wheat Farming: गेहूँ की खेती से चाहिए ज़्यादा कमाई तो अपनाएँ कठिया गेहूँ की किस्मेंसेहत के प्रति जागरूक लोगों के बीच कठिया गेहूँ की माँग तेज़ी से बढ़ रही है, क्योंकि इसमें ‘बीटा कैरोटीन’ पाया जाता है। बाज़ार में भी किसानों को कठिया गेहूँ का उचित दाम मिलता है। इस तरह, कठिया गेहूँ, अपने उत्पादक किसानों को भी आर्थिक रूप से मज़बूत बनाने में अहम भूमिका निभाता है। इसीलिए ज़्यादा से ज़्यादा किसानों को चाहिए कि यदि वो गेहूँ पैदा करें तो उन्हें कठिया किस्में को ही प्राथमिकता देनी चाहिए।
- Azolla Cultivation: अजोला की खेती पशुओं के साथ ही धान की फसल के लिए भी है फ़ायदेमंदअजोला पशुओं के लिए बेहतरीन हरा चारा है, जिसे किसान आसानी से उगा सकते हैं। अजोला को उगाना बहुत आसान है। बस इसके लिए पानी की ज़रूरत होती है। इसके अलावा किसी तरह के खाद या उर्वरक की कोई ज़रुरत नहीं होती है। ये अपने आप दोगुना होता रहता है। अजोला की खेती कैसे किसानों के लिए फ़ायदेमंद हो सकती है, देखिए प्लांट प्रोटेक्शन की सब्जेक्ट मैटर स्पेशलिस्ट हिना कौशर से खास बातचीत।
- चौलाई की खेती (Amaranth Cultivation): छोटी जोत वाले किसानों के लिए क्यों है फ़ायदेमंद? जानिए इससे जुड़ी अहम बातेंचौलाई से मिलने वाले साग (सब्ज़ी) और दाना (अनाज) दोनों ही नकदी फसलें हैं। चौलाई के खेती में ज़्यादा पानी की ज़रूरत नहीं होती। चौलाई की खेती के लिए प्रति एकड़ करीब 200 ग्राम बीज की ज़रूरत पड़ती है। जानिए चौलाई की खेती से जुड़ी ऐसी कई जानकारियां।
- Kitchen Garden: अतिथि पोपली 25 सालों से किचन गार्डन में उगा रहीं सब्ज़ियां और जड़ी-बूटियांशहर में जगह की कमी के चलते जो लोग अपने बागवानी का शौक पूरा नहीं कर पातें, वो अतिथि पोपली से सीख ले सकते हैं। जो पिछले 25 सालों से गमले और घर के सामने की छोटी सी जगह में सब्ज़ियां और जड़ी-बूटियां उगा रही हैं।
- Sesame Cultivation: गर्मियों में तिल की खेती करना किसानों के लिए क्यों फ़ायदेमंद?आमतौर पर तिल की खेती को मुनाफ़े का सौदा नहीं माना जाता है, क्योंकि इसमें पैदावार कम होती है, लेकिन तिल की खेती यदि उन्नत तरीके से की जाए तो यह किसानों के लिए फायदेमंद साबित हो सकती है। उन्नत किस्म के बीजों के साथ गर्मियों के मौसम में तिल की खेती करना अच्छा रहेगा, क्योंकि यह मौसम तिल के लिए उपयुक्त होता है।
- Top 10 Desi Cow Breeds: गौपालन से जुड़े हैं तो जानिए देसी गाय की 10 उन्नत नस्लों कोउन्नत नस्ल की देसी गायों को पालने पर दूध का उत्पादन अन्य देसी गायों के मुक़ाबले अधिक होता है। ज़ाहिर है, इससे आपकी आमदनी भी बढ़ेगी। एक बात का ध्यान ज़रूर रखें। हर क्षेत्र के हिसाब से कौन सी देसी गाय उन्नत नस्ल की है, इसकी पूरी जानकारी लेने के बाद ही उस नस्ल को पालें।
- सूखा प्रभावित क्षेत्रों के लिए फूट ककड़ी की खेती क्यों है फ़ायदेमंद? 45-48 डिग्री में भी उग जाएपिछले कुछ साल में फूट ककड़ी की उन्नत किस्मों के विकास और नई तकनीक के प्रयोग से फूट ककड़ी की खेती में इज़ाफा हुआ है। अगर व्यावसायिक तौर पर किसान इसकी खेती कर उत्पाद तैयार करते हैं तो ये अतिरिक्त आमदनी का अच्छा स्रोत बन सकती है।
- Lady Finger Varieties: भिंडी की 10 उन्नत किस्में, जिसे लगाकर किसान कर सकते हैं लाखों की कमाईभिंडी की खेती हर मिट्टी और मौसम में होती है लेकिन दोमट मिट्टी जिसका पीएच मान 6 से 6.8 हो, और गर्म जलवायु हो तो सबसे अच्छी पैदावार होती है।
- प्लास्टिक मल्चिंग तकनीक फल-सब्ज़ी की खेती में लागत घटाने का बेजोड़ नुस्ख़ा हैप्लास्टिक मल्चिंग तकनीक की वजह से एक बार सिंचाई करने के बाद खेतों में ज़्यादा वक़्त तक नमी बनी रहती है। इस तकनीक में रोपे गये या अंकुरित हुए नन्हें पौधों के तनों के आसपास का हिस्सा प्लास्टिक से ढका होने की वजह से खरपतवार नहीं पनप पाते। लिहाज़ा, इन्हें निकालने या नष्ट करने के लिए न तो गुड़ाई-निराई की श्रम की लागत आती है और ना ही खरपतवार-नाशक रासायनिक दवाईयों की ज़रूरत पड़ती है। दूसरी ओर, परम्परागत खेती में ज़मीन की जिस उर्वरा शक्ति को खरपतवार हथिया लेते हैं वो ताक़त प्लास्टिक मल्चिंग तकनीक की वजह से ज़मीन में ही बनी रहती है और उस फसल के पौधों के ही काम आती है, जिसकी खेती को किसान ने चुना है।
- Millets Farming: मोटे अनाज की खेती के ज़रिये करें जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का मुक़ाबलाहरित क्रान्ति के तहत जैसे-जैसे गेहूँ और धान की पैदावार बढ़ी वैसे-वैसे भारतीय थालियों से पौष्टिक मोटे अनाजों से बने व्यंजन और इसकी प्रति व्यक्ति खपत घटती चली गयी। आम तौर पर धान के मुक़ाबले मोटे अनाजों की पैदावार कम है। लेकिन देश के कुछ ज़िलों में वर्षा आधारित मोटे अनाजों की खेती की उपज धान से बेहतर है। इसीलिए जलवायु अनुकूलन और अनाज उत्पादन बढ़ाने के लिए मोटे अनाज की खेती आज के वक़्त की मांग है।