सेब का गूदा यानी Apple Pomace से बनेगें केक और ब्रेड, कृषि उद्योगों को मिला कमाई का नया ज़रिया
सेब से जूस निकालने के बाद बचे अवशेष (पोमेस) में फ्लेवोनोइडस, फाइबर, पेक्टिन, चीनी, एंटीऑक्सीडेंट जैसे पोषक तत्वों के इस्तेमाल की तकनीक विकसित
हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और उत्तराखंड जैसे मुख्य सेब उत्पादकों राज्यों के लिए Apple Pomace (सेब का गूदा) से केक और ब्रेड बनाने की नयी तकनीक एक सौग़ात साबित हो सकती है, क्योंकि वहाँ हर साल हज़ारों टन सेब से जूस निकालने के बाद एपल पोमेस को या तो फैक्ट्रियों में ही या उसके आसपास डम्प करना पड़ता है। इससे जल और वायु प्रदूषण की समस्या पैदा होती है।
सेब से जुड़े खाद्य प्रसंस्करण (Food processing) उद्योग को कृषि वैज्ञानिकों ने एक नयी सौग़ात दी है। हिमाचल प्रदेश के सोलन ज़िले के नौणी में स्थित डॉ यशवन्त सिंह परमार उद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय (Dr Yashwant Singh Parmar University of Horticulture and Forestry) के खाद्य विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग ने ऐसी तकनीक विकसित की है जिससे सेब का जूस निकालने के बाद बचने वाले उसके गूदे का अवशेष यानी एपल पोमेस (apple pomace) का भी खाद्य वस्तुओं के निर्माण में इस्तेमाल हो सकेगा।
एपल पोमेस को ब्रेड और केक का कच्चा माल बनाने की तकनीक
सेब के पोमेस में फ्लेवोनोइडस, फाइबर, पेक्टिन, चीनी, एंटीऑक्सीडेंट जैसे पोषक तत्व बचे रह जाते हैं। अभी तक इन्हें फेंकना पड़ता था। लेकिन अब ब्रेड और केक जैसे बेकरी आइटम के लिए यही एपल पोमेस कच्चे माल की भूमिका निभाएगा। विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ परविन्दर कौशल के अनुसार, नयी तकनीक से एपल पोमेस का मूल्यवर्धन (value addition) हो सकेगा और सेब के खाद्य प्रसंस्करण से निकलने वाले जैविक कचरे या अपशिष्ट के निपटारे की समस्या दूर होगी, क्योंकि इससे फैक्ट्रियों में ही अनेक पौष्टिक वस्तुएँ बनायी जा सकती हैं। इसीलिए उम्मीद है कि एपल पोमेस को मूल्य वर्धित उत्पादों में बदलने की तकनीक से सेब का जूस निकालने वाले कुटीर, लघु, मध्यम स्तरीय खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों को अतिरिक्त कमाई का ज़रिया मिलेगा।
अभी जल और वायु प्रदूषण का मुख्य स्रोत एपल पोमेस
यक़ीनन, नयी तकनीक हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और उत्तराखंड जैसे सेब उत्पादकों राज्यों के लिए सौग़ात साबित होगी, क्योंकि वहाँ हर साल हज़ारों टन सेब से जूस निकालने के बाद एपल पोमेस को या तो फैक्ट्रियों में ही या उसके आसपास डम्प किया जाता है या फिर बहते पानी में फेंक दिया जाता है, जहाँ से ये जल और वायु प्रदूषण का मुख्य स्रोत बन जाता है। इस तरह देश में हर साल पैदा होने वाले हज़ारों टन एपल पोमेस का निपटारा अपने आप में एक गम्भीर पर्यावरणीय चुनौती है।

देश में मौजूद है एपल पोमेस से अनेक उत्पाद बनाने की तकनीक
दुनिया भर में सेब से बनने वाले जैम और जेली, पेक्टिन, इथेनॉल, साइट्रिक एसिड, सिरका और पशु चारा जैसे अनेक मूल्य वर्धित उत्पादों के विकास और इसके प्रभावी उपयोग के लिए तकनीकें न सिर्फ़ विकसित की गयी हैं, बल्कि उन्हें मानकीकृत (standardized) किया गया है। ताकि बेकार समझकर फेंके जाने वाला एपल पोमेस में मौजूद अनेक महत्वपूर्ण पोषक तत्वों का बेहतरीन इस्तेमाल करने की क्षमता विकसित हो सके। देश में ICAR के वैज्ञानिकों ने भी इस दिशा में सराहनीय काम किया है। लिहाज़ा, यदि भारतीय सेब प्रसंस्करण उद्योग स्वदेशी तकनीकों का प्रभावी ढंग से इस्तेमाल करे तो पर्यावरण और विदेशी मुद्रा के संरक्षण में भारी योगदान हो सकता है।
एपल पोमेस में हैं रोज़गार की सम्भावनाएँ
एपल पोमेस के उपयोग की नयी तकनीक का प्रभाव कितना व्यापक हो सकता है, ये समझना मुश्किल नहीं? विश्वविद्यालय के खाद्य विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के अध्यक्ष डॉ के डी शर्मा के अनुसार, हिमाचल प्रदेश में मौजूद खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों में सालाना 20 हज़ार टन से ज़्यादा सेब का इस्तेमाल होता है। अभी तक एपल पोमेस से इथेनॉल, सिरका, पशुओं का चारा, ईंधन सामग्री और खाद बनाने की कोशिशें हुई हैं। लेकिन ये कोशिशें सीमित ही रहीं, क्योंकि ये वाणिज्यिक उद्योग (Commercial industry) का रूप नहीं ले पाया है। उम्मीद है कि एपल पोमेस के नये इस्तेमाल के प्रति उद्यमियों का रुझान तेज़ी से बढ़ेगा। इससे रोज़गार और उद्यमिता के नये विकल्प विकसित होंगे।

कैसे पाएँ नयी तकनीक का ब्यौरा?
बहरहाल, एपल पोमेस का केक और ब्रेड जैसे बेकरी उत्पादों में कैसे इस्तेमाल हो सकता है, इस नयी तकनीक के बारे में विस्तार से जानने-समझने के इच्छुक उद्यमियों को हिमाचल प्रदेश के डॉ यशवन्त सिंह परमार उद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय के खाद्य विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (Dept. of Food Science &Technology) से सीधा सम्पर्क करना चाहिए। यहाँ का फ़ोन नम्बर 01792-252410 और ईमेल hodfst@yspuniversity.ac.in और hodfstuhf@gmail.com है।
हिमाचल में सेब की खेती
हिमाचल प्रदेश, देश का प्रमुख सेब उत्पादक राज्य है। वहाँ 2 लाख से ज़्यादा परिवार सेब की खेती में जुड़े हुए हैं। इतने ही लोग सेब की पैकेज़िंग, मार्केटिंग, ट्रांसपोर्टिंग और कोल्ड स्टोरेज़ से कारोबार से जुड़े हैं। यही वजह है कि हिमाचल प्रदेश की कृषि अर्थव्यवस्था में बाग़वानी और इसमें भी सेब की खेती की अर्थव्यवस्था ख़ासी बड़ी है। राज्य में रॉयल डिलीशियस, रेड चीफ़, सुपर चीफ़, ओरेगन स्पर और स्कारलेट स्पर जैसे सेब की उम्दा नस्लों के बाग़ान हैं। इन बाग़ानों से अगस्त से लेकर अक्टूबर तक बाज़ार में सेब आते रहते हैं।
सेब के जूस का कारोबार
आमतौर पर एक किलो सेब से 600 से 650 मिली जूस निकलता है। यानी, जूस निकालने के बाद सेब के प्रति किलोग्राम से करीब 350 से 400 ग्राम एपल पोमेस हासिल होता है। इस हिसाब से देखें तो अकेले हिमाचल में सालाना 8 हज़ार टन एपल पोमेस उपलब्ध है। यदि इस मात्रा का बेकरी में केक और ब्रेड बनाने के लिए इस्तेमाल हो सके तो राज्य में खेती-बाड़ी की दुनिया में क्रान्तिकारी बदलाव पैदा हो सकता है। सेब के जूस की मार्केटिंग इसके ‘कंसन्ट्रेट’ (apple juice concentrate) की डिब्बाबन्द बोतलों के रूप में होती है। एक किलो सेब ‘कंसन्ट्रेट’ के उत्पादन के लिए 9 से 12 किलोग्राम सेब की ज़रूरत पड़ती है। इस मात्रा में अन्तर जूस निकालने वाली फैक्ट्री की मशीनों और टेक्नोलॉज़ी की वजह से होता है।
हिमाचल प्रदेश में बाग़वानी क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए राज्य सरकार की ओर से खाद्य प्रसंस्करण और मार्केटिंग के लिए एक ख़ास सरकारी उद्यम का संचालन किया जाता है। इसका नाम है – Himachal Pradesh Horticultural Produce Marketing and Processing Corporation (HPMC). HPMC के परवानू और जारोल में दो बड़े फूड प्रोसेसिंग प्लांट्स हैं। साल 2018 में भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) ने घाटे में चल रहे HPMC की उत्पादकता पर गम्भीर सवालिया निशान लगाये थे और इसकी दशा को चिन्ताजनक बताया था। फ़िलहाल, आलम ये है कि HPMC को चीन से आयातित एपल जूस कंसन्ट्रेट से कड़ी प्रतिस्पर्धा झेलनी पड़ती है। हालाँकि, देश में डिब्बाबन्द पेय पदार्थ के कारोबार से जुड़ी जानी-मानी कम्पनियाँ जैसे पारले एग्रो, गोदरेज इंडस्ट्रीज, नेस्ले और मोहन मैकिन्स वग़ैरह HPMC से नियमित तौर पर एपल जूस कंसन्ट्रेट ख़रीदती हैं।

जम्मू-कश्मीर में सेब की रिकॉर्ड पैदावार
जम्मू-कश्मीर में इस बार सेब की रिकॉर्ड पैदावार हुई है। बीते साल राज्य से जहाँ 10 लाख टन सेब देश के अन्य राज्यों में भेजा गया, वहीं इस साल अभी तक 15 लाख टन सेब सूबे की मंडियों से बाहर भेजा चुका है। राज्य के बाग़वानी योजना एवं विपणन विभाग के संयुक्त निदेशक दिग्विजय सिंह के अनुसार, सूबे में इस साल हुए बम्पर सेब उत्पादन ने रिकॉर्ड बनाया है। 2021 में जहाँ 15 लाख टन सेब को प्रदेश से बाहर भेजा गया वहीं 2020 में इसकी मात्रा 10 लाख टन रही। जबकि 2019 में ये मात्रा 14 लाख टन और 2018 में 12 लाख टन थी।
प्रदेश की कृषि मंडियों में अब तक सेब का 6 हज़ार करोड़ रुपये से ज़्यादा का कारोबार हो चुका है। मार्च तक राज्य में 17 लाख टन सेब के मंडियों में आने और इसका कारोबार 7 हज़ार करोड़ रुपये तक पहुँचने की उम्मीद है। दरअसल, इस साल कोविड संक्रमण के दौरान भी कारोबार प्रभावित नहीं हुआ और कोल्ड स्टोरेज़ में सेब का सही रखरखाव हो सका। इस साल कोल्ड स्टोरेज़ की सुविधा भी पूरे राज्य के किसानों को मुहैया करवायी जा सकी। कश्मीरी सेब की प्रमुख नस्लें हैं – हज़रत बली, गाला मस्त, कंडीसन, रजातबाड़ी, अमरी गोल्डन, रायल डिलिशियस और रेड डिलीशियस। कश्मीरी सेब में मिठास ज़्यादा होने की वजह से इसकी ख़ूब माँग रहती है।
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