आजकल अधिकतर किसान हार्वेस्टर से फसल की कटाई करते हैं, जिससे फसल के अवशेष खेत में ही रह जाते हैं। फिर किसानों को मजबूरन इन अवशेषों को जलाना पड़ता है। इससे धुएं के रूप में हमारे पर्यावरण में ज़हर घुलता है। मिट्टी में पाए जाने वाले मित्र कीट भी नष्ट हो जाते हैं। इससे ज़मीन की उर्वरा शक्ति पर भी बुरा असर पड़ता है। आज देश में सरकारी, गैर-सरकारी संस्थाएं और व्यक्तिगत तौर पर लोग पराली की समस्या से निपटने के लिए रास्ते निकाल रहे हैं। क्या आपको पता है कि फसल अवशेष यानी पराली से खाद भी बनाई जा सकती है? भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान यानी IARI पूसा नई दिल्ली की बायोमास यूटिलाइजेशन यूनिट ने जैविक खाद बनाने की विंड्रोव तकनीक विकसित की है। इस तकनीक में पाँच विधियों से खाद बनाई जा सकती है। ये विधियां कम लागत में अधिक गुणवत्ता वाली जैविक खाद देंगी। इसको लेकर किसान ऑफ़ इंडिया ने IARI बायोमास यूटिलाइजेशन यूनिट के कोऑर्डिनेटर और प्रमुख वैज्ञानिक डॉ. शिवधर मिश्रा से ख़ास बातचीत की।
क्या है विंड्रोव तकनीक?
डॉ. शिवधर मिश्रा ने बताया कि विंड्रोव तकनीक सभी स्तरों पर बहुत उपयोगी साबित हो रही है। किसान धान, सोयाबिन, लोबिया, मक्का, ज्वार, बाजरा के कृषि अवशेषों सहित फल और सब्जियों के छिलके, बाग-बगीचों की पत्तियां और फूल आदि से जैविक खाद बना सकते हैं।
डॉ. शिवधर मिश्रा के अनुसार, विंड्रोव तकनीक से बड़े पैमाने पर कम समय में कम्पोस्ट खाद बनाई जा सकती है। उन्होंने बताया कि सबसे पहले फसल के अवशेषों का ढेर बना लिया जाता है। इस प्रकार के बने ढेर को ‘विंड्रोव’ कहते हैं। इसकी ऊंचाई और चौड़ाई 2 से 2.5 मीटर रख सकते हैं। लंबाई उपलब्ध जगह के अनुसार 10 से 100 मीटर या उससे अधिक भी हो सकती है। इन ढेरों में जैविक कल्चर मिलाकर उचित मात्रा में नमी रखकर समय-समय पर मशीन द्वारा पलटा जाता है। इस प्रोसेस में सभी पदार्थ समान रुप से मिल जाते हैं। ढेरों में वायुसंचार हो जाता है। इस तरह तीन से चार पलटाई में 3 से 9 हफ़्ते में उत्तम जैविक खाद तैयार हो जाती है।
IARI ने विकसित की 5 कम्पोस्टिंग विधियां
इस तकनीक से पांच तरह की खाद तैयार की जाती है:
1) फसल अवशेष खाद: इसमें एक साथ कई फसलों के अवशेषों को मिलाकर या अलग-अलग फसल की खाद तैयार की जाती है।
2) फसल अवशेष और गोबर खाद: ये खाद गोबर और फसल अवशेष को अलग-अलग अनुपात में मिलाकर तैयार की जाती है। धान, गेहूं और अन्य फसलों जैसे कपास, अरहर, आदि के अवशेषों को श्रेडर मशीन से 8 से 10 सेंटीमीटर छोटा कर लिया जाता है। 80 फ़ीसदी फसल अवशेष और 20 फ़ीसदी ताज़े गोबर का मिश्रण बनाया जाता है।
3) तीसरी विधि में गोशाला से प्राप्त गोबर और बचे हुए चारे से खाद बनाई जाती है।
4) चौथी विधि से बनाई गई खाद को समृद्ध खाद कहते हैं। इस तकनीक में खाद बनाने के लिए फसल अवशेष और गोबर खाद दोनों का इस्तेमाल किया जाता है। इस खाद में जिस पोषक तत्व की मात्रा बढ़ानी होती है, उसे ढेर में मिला दिया जाता है। उदाहरण के तौर पर जैसे फॉस्फोरस की मात्रा बढ़ाने के लिए रॉक फास्फेट प्रयोग करके फॉस्फो कम्पोस्ट तैयार किया जाता है।
5) इस विधि में पत्तियों से खाद बनाई जाती है। इसमें पेड़-पौधों की पत्तियों और कटाई-छंटाई से प्राप्त छोटी-मोटी टहनियों से खाद बनाई जाती है। इस प्रकार की खाद नर्सरी और गमलों में लगे पौधो के लिए बेहतर होती है।
विंड्रोव तकनीक से खाद बनाने की विधि
डॉ. शिवधर मिश्रा के अनुसार, विंड्रोव तकनीक में कूड़ा-कचरा और फसल के अवशेषों को डालने के तुरंत बाद ही पहली पलटाई की जाती है। फिर दूसरी पलटाई 10 दिन बाद करते हैं। तीसरी 25 दिन बाद, चौथी 40 दिन बाद और पांचवीं 55-60 दिन पर करते हैं। पलटाई की संख्या प्रयोग में लाये जाने वाले अवशेषों के आधार पर कम या ज़्यादा भी हो सकती है। समय-समय पर ढेरों पर पानी का छिड़काव भी ज़रूरी है। साथ ही विंड्रोव यानी ढेरों का आकार सही करते रहें।
डॉ. शिवधर मिश्रा ने बताया कि किसान आसानी से विंड्रोव तकनीक से अपने घर पर ही जैविक खाद तैयार कर सकते हैं। किसान डीएपी, एसएसपी और यूरिया खरीदने पर जितना पैसा खर्च करते हैं, उससे कम पैसे में विंड्रोव कम्पोस्टिंग के ज़रिए खाद बनाकर भरपूर फसल पैदा कर सकते हैं। इससे मिट्टी की अच्छी गुणवत्ता के साथ ही पोषक तत्वों की उपलब्धता लंबे समय तक बनी रहेगी। विंड्रोव कम्पोस्टिंग लवणीय और क्षारीय भूमि में भी असरदार है, जबकि डीएपी ऐसी भूमि में काम नहीं करते।
हमारी पारम्परिक खेती में पहले कचरा, गोबर, दुधारू पशुओं का मलमूत्र और अन्य वनस्पति कचरे को इकठ्ठा करके खाद बनाई जाती थी। पौधों के लिए आवश्यक सभी पोषक तत्व इसमें होते थे। इस तरह से जैविक खाद के इस्तेमाल से मिट्टी की प्राकृतिक उपजाऊ शक्ति बरकार रहती थी। इससे फसलों से लगातार उपज मिलती रहती थी। किसानों को लागत भी कम लगती थी। किसानों के लिए जैविक खाद बेहतर फसल पैदावार के साथ ही मिट्टी की उपजाऊ क्षमता बढ़ाने और कम लागत के नज़रिये से काफ़ी फ़ायदेमंद है।
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