रोशा घास (Palmarosa farming): बंजर ज़मीन पर रोशा घास की खेती से पाएं शानदार कमाई

भारत में सुगन्धित तेलों के उत्पादन में रोशा घास तेल का एक महत्वपूर्ण स्थान है। देश में बड़े पैमाने पर इसकी इसकी व्यावसायिक खेती होती है। भारत ही इसका सबसे बड़ा उत्पादक है। इससे प्रथम वर्ष में प्रति हेक्टेयर डेढ़ लाख रुपये से ज़्यादा का शुद्ध लाभ मिल सकता है। इससे आगामी वर्षों में मुनाफ़ा और बढ़ता है। रोशा घास की खेती करने के लिए सीमैप, लखनऊ और इससे जुड़े केन्द्रों की ओर से किसानों की भरपूर मदद की जाती है। उन्हें बीज के अलावा ज़रूरी मार्गदर्शन भी उपलब्ध करवाया जाता है।

रोशा घास की खेती

रोशा घास या Palmarosa एक बहुवर्षीय सुगन्धित पौधा है। इससे सुगन्धित रोशा तेल (Palmarosa Oil) निकाला जाता है। रोशा घास का मूल स्थान भारत को माना गया है। भारत ही इसका सबसे बड़ा उत्पादक है। इसकी खेती में पारम्परिक फसलों की तुलना में लागत कम और मुनाफ़ा ज़्यादा होता है। कम उपजाऊ और कम बारिश वाले यानी शुष्क इलाकों में भी रोशा घास की खेती से बढ़िया कमाई होती है। एक बार रोपाई के बाद रोशा घास की पैदावार 3 से लेकर 6 साल तक मिलती है। इसमें से चार साल तक उपज ज़्यादा मिलती है, फिर तेल की मात्रा घटने लगती है। रोशा घास पर कीटों और रोगों का हमला भी बहुत मुश्किल से होता है।

कठिन खेती को आसान बनाती है रोशा घास

रोशा घास की खेती उपजाऊ, कम उपजाऊ या pH मान 9.0 के आसपास की ऊसर मिट्टी में भी हो सकती है। इसे कम सिंचाई वाले इलाकों और सीधे बढ़ने वाले पेड़ों जैसे यूकेलिप्टस और पॉपुलर के बीच भी सफलतापूर्वक लगाया जा सकता है। खेती की ऐसी प्रतिकूल दशाओं का रोशा घास के तेल की गुणवत्ता पर कोई हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता है। रोशा घास के विभिन्न हिस्सों में तेल की मात्रा अलग-अलग मिलती है। पूरे पौधे में औसतन 0.1 से 0.4 प्रतिशत, फूलों में 0.45 से 0.52 प्रतिशत, पत्तियों में 0.16 से 0.25 प्रतिशत और डंठल में 0.01 से 0.03 प्रतिशत तेल पाया जाता है।

रोशा घास (Palmarosa farming)
तस्वीर साभार: icar

रोशा घास के तेल का इस्तेमाल

रोशा तेल की ख़ुशबू, ग़ुलाब से मिलती-जुलती सी होती है। इत्र, सौन्दर्य प्रसाधन और मसाले के रूप में इसका व्यापक इस्तेमाल होता है। एंटीसेप्टिक, दर्द निवारक, त्वचा रोगों, हड्डी के जोड़ों का दर्द और लूम्बेगो (कमर की अकड़न) से सम्बन्धित दवाईयों के निर्माण में तथा मच्छरों से बचाने वाली क्रीम में भी रोशा तेल का इस्तेमाल होता है। रोशा घास की खेती करने के लिए CSIR-केन्द्रीय औषधीय तथा सगन्ध पौधा संस्थान (सीमैप), लखनऊ और इससे जुड़े अनेक अनुसन्धान केन्द्रों की ओर से किसानों की भरपूर मदद की जाती है। उन्हें बीज के अलावा ज़रूरी मार्गदर्शन भी उपलब्ध करवाया जाता है।

रोशा घास (Palmarosa farming)
तस्वीर साभार: ICAR

रोशा घास तेल का भारत सबसे बड़ा उत्पादक

‘सीमैप’ ने रोशा घास की अनेक उन्नत किस्में भी विकसित की हैं। जैसे PRC-1, तृष्णा, तृप्ता, वैष्णवी और हर्ष। इसमें से PRC-1 तो किसानों के बीच काफ़ी लोकप्रिय है। भारत में सुगन्धित तेलों के उत्पादन में रोशा घास तेल का एक महत्वपूर्ण स्थान है। रोशा घास की व्यावसायिक खेती को बड़े पैमाने पर उत्तर प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, पंजाब, हरियाणा, तमिलनाडु, गुजरात और मध्य प्रदेश में किया जाता है। इसे असम, बिहार, उत्तर प्रदेश, केरल, मणिपुर, हिमाचल, नागालैंड, जम्मू-कश्मीर और पश्चिम बंगाल में भी उगाते हैं। भारत के अलावा रोशा घास की व्यावसायिक खेती इंडोनेशिया, पूर्वी अफ्रीकी देशों, ब्राजील, क्यूबा, ग्वाटेमाला और होंडुरास में भी होती है।

रोशा घास की उन्नत खेती कैसे करें?

रोशा घास का प्रसार इसके जड़दार पौधों की रोपाई के अलावा सीधे बीज की बुआई विधि से भी हो सकता है। रोशा घास की व्यावसायिक खेती के लिए नर्सरी में तैयार पौधों की रोपाई विधि को बेहतर पाया गया है। एक हेक्टेयर खेत में रोपाई के लिए नर्सरी 400-500 वर्गमीटर क्षेत्रफल में बनानी चाहिए। नर्सरी में उठी हुई क्यारियाँ बनाकर उनमें सड़े गोबर की खाद या केंचुआ खाद को उचित मात्रा में मिलाने के बाद अच्छी तरह से सिंचाई करने के बाद ही बीज बोने चाहिए।

जलवायु: रोशा घास का पौधा 10° से 45° सेल्सियस तक तापमान सहने की क्षमता रखता है। पौधे की बढ़वार के लिए गर्म और नमी वाली जलवायु आदर्श होती है क्योंकि इससे पौधे में तेल की अच्छी मात्रा मिलती है। रोशा घास के लिए जल भराव वाले खेत का चुनाव नहीं करना चाहिए। इसके लिए 100 से 150 सेंटीमीटर सालाना बारिश वाला इलाका भी माकूल होता है। रोशा घास की बढ़वार 150 से 250 सेंटीमीटर तक होती है। सूखा प्रभावित और पूरी तरह से बारिश पर निर्भर इलाकों के लिए भी रोशा घास एक उपयुक्त फसल है।

खेत की तैयारी: रोशा घास के लिए खेत की तैयारी रोपाई के तरीकों यानी बीज या पौध रोपण पर भी निर्भर करती है। साधारणत: खेत की मिट्टी को भुरभुरी बनाने के लिए कम से कम दो बार हैरो या कल्टीवेटर से जुताई करनी चाहिए। आख़िरी जुताई के समय प्रति हेक्टेयर 10 से 15 टन सड़ी हुई गोबर की खाद खेत में डालना चाहिए।

रोशा घास (Palmarosa farming)
तस्वीर साभार: ICAR

नर्सरी की प्रक्रिया: नर्सरी में पौधों को तैयार करने का सबसे सही वक़्त अप्रैल से मई का है। प्रति हेक्टेयर 25 किलोग्राम बीज की मात्रा की ज़रूरत पड़ती है। बीज को रेत के साथ मिलाकर 15-20 सेंटीमीटर की दूरी और 1-2 सेंटीमीटर की गहराई में या क्यारियों के ऊपर छिड़ककर बोना चाहिए। जल छिड़काव से नर्सरी को लगातार नम रखने से अंकुरण जल्दी होता है और ये करीब महीने भर खेत में रोपाई के लिए तैयार हो जाते हैं। क्यारियों से जब पौधे 20-25 सेंटीमीटर ऊँचे हो जाएँ तो उन्हें पर्याप्त नमी देकर उखाड़ लेना चाहिए।

खेत में पौधों की रोपाई: नर्सरी से निकाले गये पौधों को अच्छी तरह से तैयार खेत में 60×30 सेंटीमीटर की दूरी पर रोपाई करनी चाहिए। यदि नर्सरी में पौधे की लम्बाई अधिक हो गयी हो तो उसको ऊपर से काट लेना चाहिए। रोपाई से पहले खेत में सिंचाई करनी चाहिए और यदि रोपाई के बारिश में देरी हो तो भी हल्की सिंचाई अवश्य करनी चाहिए।

सिंचाई: वर्षा ऋतु में रोशा घास की फसल को सिंचाई की ज़रूरत नहीं पड़ती। लेकिन गर्मियों में 3-4 सिंचाई तथा सर्दियों में दो सिंचाई पर्याप्त होती है। कटाई से पहले सिंचाई बन्द कर देना चाहिए लेकिन कटाई के बाद सिंचाई अवश्य करनी चाहिए।

खाद: रोशा घास में प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष 100:50:50 किलोग्राम नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटाश की आवश्यकता पड़ती है। इसमें से 40 किलोग्राम/हेक्टेयर नाइट्रोजन की मात्रा प्रत्येक कटाई के बाद तीन हिस्सों में देनी चाहिए। ज़िंक सल्फेट 25 किलोग्राम/ हेक्टेयर डालने पर उपज में वृद्धि होती है। रोशा घास की फसल में ज़्यादा नाइट्रोजन का उपयोग हानिकारक होता है। इसलिए नाइट्रोजन ज़रूरत के अनुसार ही देना चाहिए।

रोग नियंत्रण: रोशा घास एक रोग-सहिष्णु फसल है। इस पर विशेष कीटों और रोगों का प्रकोप नहीं पड़ता। लेकिन कभी-कभार एफिड, थ्रिप्स, व्हाइट ग्रब का असर नज़र आ सकता है। इसकी रोकथाम के लिए रोगर (0.1 प्रतिशत) या मोनोक्रोटोफॉस (0.1 प्रतिशत) कीटनाशी का छिड़काव करना चाहिए। पत्ता तुषार नामक रोग का प्रकोप होने पर बेलेंट (0.1 प्रतिशत) फफूँदनाशी रसायन का छिड़काव करना चाहिए।

कटाई: रोशा घास की उपज में फूल वाला सिरा मुख्य हिस्सा होता है। क्योंकि आसवन (distillation) की प्रक्रिया में इससे तेल की मात्रा ज़्यादा मिलती है। लेकिन यदि फसल में 50 प्रतिशत भी फूल आ जाए तो इसकी कटाई कर लेनी चाहिए। ज़्यादा फूल आने के लिए वर्षा ऋतु का इन्तज़ार नहीं करनी चाहिए। फसल की कटाई ज़मीन से 15-20 सेंटीमीटर का पौधे का भाग छोड़कर दरांती या हसियाँ से की जाती है। इसके बाद फसल को एक दिन धूप में या दो दिन छाये में सुखाने के बाद भी आसवन प्रक्रिया के हवाले करना चाहिए, ताकि कम खर्च में ज़्यादा तेल मिल सके। कटाई के बाद फसल को ढेर लगाकर नहीं रखना चाहिए। आसवन इकाई से जुड़े बर्तनों को साफ़ और पूरी तरह से ज़ंग और गन्ध रहित होना चाहिए।

रोशा घास (Palmarosa farming): बंजर ज़मीन पर रोशा घास की खेती से पाएं शानदार कमाई

रोशा घास की खेती से कमाई

रोशा घास की फसल में पाये जाने वाले तेल का अनुपात शाक, जलवायु और खेती के प्रबन्धन पर निर्भर करता है। पहले साल की पैदावार में तेल की मात्रा कम होती है। लेकिन आगामी वर्षों में उपज में तेल का अंश बढ़ता जाता है। उत्तम कृषि प्रबन्धन की दशों में प्रति हेक्टेयर सालाना 200 से 250 किलोग्राम तेल प्राप्त होता है। इससे प्रथम वर्ष में लगभग डेढ़ लाख रुपये का शुद्ध लाभ प्राप्त किया जा सकता है। ये कमाई आगामी वर्षों में पहले साल की अपेक्षा ज़्यादा होती है।

रोशा घास सगन्ध तेल के भौतिक-रासायनिक लक्षण
भौतिक-रासायनिक विशेषता सगन्ध तेल
रंग और रूप हल्का पीला या पीला
ख़ुशबू ग़ुलाब से मिलती-जुलती, ग्रासी
सापेक्षिक घनत्व (relative density at 27ºC) 0.876 से 0.888
ऑप्टिकल रोटेशन -2º से 2º
अपवर्तनांक (refractive index at 27ºC) 1.470 से 1.474
अधिकतम अम्लीय मान 3
जिरेनियल प्रतिशत के रूप में अल्कोहल 99.0
ईस्टरमान 9 से 36
एसिटिलेशन के बाद ईस्टरमान 266 से 280

 

रोशा घास तेल का शुद्धिकरण और भंडारण

तेल की गुणवत्ता को बनाये रखने के लिए आसवन प्रक्रिया के बाद तेल से अवांछनीय पदार्थों को निकालना और उसकी सफ़ाई करना बहुत ज़रूरी होता है। तेल से पानी के अंश को निकालने के लिए उसमें 2-3 ग्राम/किलोग्राम तेल की दर से एनाहाइड्रस सोडियम सल्फेट डालकर लगभग 8 से 10 घंटे के लिए रखा जाता है। इसके बाद आसवित तेल को रुई के ज़रिये छानकर अशुद्धियाँ दूर की जाती हैं। रोशा घास के तेल की गुणवत्ता पर नमी, हवा और धूप का विपरीत प्रभाव पड़ता है। इसीलिए तेल को स्टील या एल्युमिनियम के हवाबन्द बर्तन में डालकर छायादार जगह में सामान्य तापमान पर रखना चाहिए।

रासायनिक संरचना और तेल गुणवत्ता का मूल्यांकन

रोशा घास के तेल की रासायनिक संरचना काफ़ी जटित होती है। इसमें 150 से अधिक यौगिक (compounds) मौजूद होते हैं। इसीलिए भारतीय मानक के अनुसार रोशा घास के तेल की गुणवत्ता का निर्धारण इसके भौतिक और रासायनिक गुणों के माध्यम से किया गया है।  इसका रोचक पहलू ये भी है कि देश के अलग-अलग इलाकों की उपज में पाये जाने वाले तेल के गुणों में भी फ़र्क़ दिखायी देता है।

रोशा घास सगन्ध तेल के प्रमुख रासायनिक घटक और उनका प्रतिशत
सक्रिय तत्व बेंगलुरु (कर्नाटक) हैदराबाद (तेलंगाना) तिरुवन्नमलई (तमिलनाडु)
जिरेनियाल 75.81 84.0 79.75
जिरेनाइल एसीटेट 18.37 5.3 7.46
लीनालूल 2.32 2.3 3.25
ई-बीटा-ओसिमौन 1.3 0.7 0.8
जिरेनाइल ब्यूटिरेट 0.2 0.2 0.2

 

सम्पर्क सूत्र: किसान साथी यदि खेती-किसानी से जुड़ी जानकारी या अनुभव हमारे साथ साझा करना चाहें तो हमें फ़ोन नम्बर 9599273766 पर कॉल करके या [email protected] पर ईमेल लिखकर या फिर अपनी बात को रिकॉर्ड करके हमें भेज सकते हैं। किसान ऑफ़ इंडिया के ज़रिये हम आपकी बात लोगों तक पहुँचाएँगे, क्योंकि हम मानते हैं कि किसान उन्नत तो देश ख़ुशहाल।

मंडी भाव की जानकारी

ये भी पढ़ें:

 

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top