फसलों में बढ़ते केमिकल के इस्तेमाल ने खेतों को ही नुकसान नहीं पहुंचाया, बल्कि मानव शरीर को भी बीमार किया है। साथ ही पालतु और दुधारु पशु-पक्षियों के स्वास्थ्य पर भी इसका असर पड़ा है। खेती को इन सबसे मुक्त करने का प्राकृतिक उपहार है अजोला। ऐसा वरदान जो पशु आहार, मानव आहार और जैव उर्वरक सब के रूप में उपयोग किया जाता है। किसान ऑफ़ इंडिया से ख़ास बातचीत में कृषि विज्ञान केंद्र पीपीगंज गोरखपुर के पशु विज्ञान विशेषज्ञ डॉ. विवेक प्रताप कुमार सिंह ने अजोला की खेती को लेकर कई अहम बाते बताईं। साथ ही जयपुर के प्रगतिशील किसान गजानन्द अग्रवाल ने भी अजोला की खेती की तकनीकों के बारे में बताया।
पोषक तत्वों से भरपूर है अजोला
डॉ. विवेक प्रताप कुमार सिंह का कहना है ये एक ऐसा हरा पौष्टिक तेज़ी से बढ़ने वाला जलीय फ़र्न है, जो नम ज़मीन पर भी ज़िंदा रहता है। इसके अच्छे विकास के लिए भूमि की सतह पर 5 से 10 सेंटीमीटर ऊंचे जलस्तर की ज़रूरत होती है। 25 से 30 डिग्री टेम्परेचर इसकी वृद्धि के लिए उपयुक्त है।
पशुओं के लिए अजोला ड्राई फ्रूट की तरह है। इसको हरे चारे के रूप में काम में लिया जाता है। अजोला में 25 से 30 फ़ीसदी प्रोट्रीन की मात्रा पाई जाती है, जो अन्य किस भी चारे की तुलना में काफ़ी ज़्यादा है। अजोला को गाय, भैंस, बकरी, मुर्गी, सभी तरह के मवेशियों को खिला सकते हैं। अजोला दुधारू पशुओं का दूध बढाने का काम करता है। इसके अलावा, अन्य पशुओं के विकास में सहायक होता है।
50 फ़ीसदी कम होती लागत
डॉ. विवेक ने बताया कि अधिकतर दुधारू पशुओं को वर्ष भर हरा चारा नहीं मिल पाता। पौष्टिक चारा और कच्चा चारा बाज़ार में 25 रूपये प्रति किलो मिलता है। अजोला जिसे आप हरा सोना कह सकते हैं, इसके उत्पादन में लागत बेहद कम आती है। अगर किसान अजोला का उत्पादन करता है तो प्रति किलो लागत का खर्च 2 से 3 रूपये आता है। वहीं दुसरी तरफ़ अजोला का उत्पादन करने में पानी की कम जरूरत पड़ती है। किसान अपनी बंजर ज़मीन या खाली जगह में आसानी से इस तरह के बेड में अजोला का उत्पादन कर पशुपालन के आहार पर होने वाले खर्च को कम कर सकते हैं।
डॉ. विवेक प्रताप कुमार सिंह कहते हैं कि किसान पिट मेथड, टैंक मेथड और तीसरी सबसे आधुनिक अजोला ग्रोईंग बेड तकनीक यानि एचडीपीई तकनीक से अजोला का उत्पादन कर सकते हैं। शहरी क्षेत्रो में जहां लोग छोटी-छोटी डेयरी से पशुपालन का कार्य कर रहे है, वहां पर ज़मीन की कमी होने के चलते मकानों की छत पर एचडीपीई बेड लगा सकते हैं।
अजोला की उत्पादन तकनीक
इन तकनीकों को अपनाने वाले किसान आमतौर पर 12 फीट लंबा, 6 फीट चौड़ा और 1 फ़ीट ऊंचा बेड बनाते हैं। किसान अपनी ज़रूरत के अनुसार पिट, टैंक और एचडीपीई बेड की लम्बाई और चौड़ाई घटा-बढ़ा सकते हैं। इस आकार के पिट, टैंक और बेड से प्रतिदिन लगभग 2 किलो ताजे अजोला का उत्पादन किया जा सकता है। बात करें एचडीपीई बेड की तो ये हरे रंग के होते है और यह पॉलिथीन शीट से बने तालाबों की तुलना में लम्बे समय तक चलते हैं।
डॉ. सिंह के अनुसार, किसान जिस किसी भी तकनीक का इस्तेमाल करें, ज़रूरी है कि उपजाऊ मिट्टी के साथ गोबर और पानी को एक मात्रा में मिला लें। इसे पिट,टैंक या फिर बेड में समान रूप से डाल दें। पानी की गहराई 4 से 6 इंच होनी चाहिए। बेड की सतह भी समतल होनी चाहिए, जिससे पूरे एरिया में पानी की गहराई समान रहे। फिर गोबर-पानी का छाना हुआ घोल डालें और 1 किलो अजोला कल्चर प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से डाल दें। सप्ताह भर में अजोला का उत्पादन होने लगेगा।
उपज में तेज वृद्धि के लिए आपको कुछ फर्टिलाइज़र की आवश्यकता होगी, ताकी आप नियमित अंतराल पर इससे चारा ले सकें। इस तरह के पिट, टैंक और बेड से एक महीने में तकरीबन 60 किलो अजोला का उत्पादन होता है।
दूध उत्पादन में 15 से 20 फ़ीसदी तक वृद्धि
पशु विज्ञान विशेषज्ञ डॉ. सिहं का कहना है कि गाय-भैंस ही नहीं, मुर्गी, खरगोश और दूसरे पालतू जानवरों के आहार के रूप में भी अजोला का कोई जोड़ नहीं। दुधारू पशुओं को अजोला खिलाकर न सिर्फ़ उनके शारीरिक विकास को तेज़ किया जा सकता है, बल्कि इससे दूध उत्पादन में भी 15-20 फ़ीसदी तक वृद्धि की जा सकती है। उनका कहना है कि दुधारू पशुओं को दिए जाने वाले सांद्र आहार (दाना, खली) की जगह अजोला इस्तेमाल कर पशुओं के लगने वाले आहार के खर्च को 40 से 50 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है। उनके अनुसार, दुधारू पशुओं को राशन में अजोला 1:1 के अनुपात में मिलाकर खिलाया जा सकता है।
एचडीपीई तकनीक से अजोला का उत्पादन
जयपुर ज़िले के धनोता गाँव के अजोला उत्पादक किसान गजानन्द अग्रवाल बताते हैं कि अजोला ईकाई लगाने के लिए कोई ख़ास ट्रेनिंग की ज़रूरत नहीं होती। वो एचडीपीई तकनीक से अजोला का उत्पादन कर रहे हैं। उन्होंने इसके उत्पादन के लिए 70 बेड बनवाएं। किसान गजानन्द के अनुसार, 12 फीट लंबे, 6 फीट चौड़े और 1 फ़ीट ऊंचे बेड की कीमत करीबन 6 हजार रूपये पड़ती है। ये बाज़ार में मिल जाता है। 3 महीने के उत्पादन से एचडीपीई बेड में खर्च हुई लागत को आसानी से कमा कर निकाला जा सकता हैं।
अच्छी आय का ज़रिया बन सकता अजोला उत्पादन
गजानन्द अग्रवाल बताते हैं कि मौसम के हिसाब से अजोला इकाई को सर्दियों में ढकने की ज़रूरत होती है। गर्मी में पानी का वाष्पीकरण ज़्यादा होता है, इसलिए इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि अजोला के बेड में पानी का लेवल हमेशा 3 से 4 इंच बना रहे। अजोला की खेती को अपना कर व्यापर भी शुरू किया जा सकता है। अन्य किसानों की मांग की आपूर्ती कर सकते हैं। गजानन्द व्यवसायिक स्तर पर अजोला का उत्पादन कर रहे हैं। अजोला की खेती से उन्हें प्रति महीने 30 हज़ार रूपये से लेकर 50 हज़ार रूपये तक की आमदनी हो जाती है।
आमदनी में हुआ इज़ाफ़ा
गजानन्द बताते हैं कि अजोला को अगर आप खेतों में डालते हैं तो इससे फर्टिलाइज़र डालने की ज़रूरत आधी रह जाती है। ख़ास कर धान के खेतों के लिए तो ये बेहद आसान है, क्योंकि इसके लिए अलग से अजोला उपजा कर खेत में डालने की ज़रूरत नहीं। धान के खेतों में पानी होता ही है, बस आपको अजोला कल्चर डालने की देर है, किसानों का फर्टिलाइज़र का 50 फ़ीसदी खर्चा बचेगा।
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