फसल में रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से न केवल हमारी सेहत खराब हो रही है, बल्कि इसके चलते मिट्टी की उपजाऊ क्षमता भी दिन-ब-दिन घट रही है। किसानों की आमदनी का एक हिस्सा तो रासायानिक उर्रवकों पर ही खर्च हो जाता है। इसलिए अब ज़रूरी हो गया है कि किसान रासायनिक उर्वरकों के विकल्प की ओर जाएं। किसान वो तरीके अपनाएं, जिससे मिट्टी की उपजाऊ क्षमता बढ़े और ज़्यादा लागत भी न लगे। मिट्टी की उपजाऊ शक्ति को बढ़ाने के लिए हरी खाद एक अच्छा विकल्प है। कैसे हरी खाद मिट्टी की उपजाऊ क्षमता बढ़ाने में कारगर है? कैसे हरी खाद के इस्तेमाल से किसान फसलों की अच्छी पैदावार ले सकते हैं? इन सब बिंदुओं पर किसान ऑफ़ इंडिया ने मध्य प्रदेश स्थित कृषि विज्ञान केन्द्र बुराहनपुर के कृषि वैज्ञानिक डॉ. भूपेन्द्र सिंह से ख़ास बातचीत की।

डॉ. भूपेन्द्र सिंह बताते हैं कि गेहूं की कटाई के बाद मई-जून के महीने में अमूमन खेत खाली रहते हैं। इस दौरान कई तरह के नुकसानदेह खरपतवार खेतों में जमा हो जाते हैं। इस वजह से मिट्टी के पोषक तत्वों को नुकसान पहुंचता है। साथ ही लगातार असंतुलित खाद और फर्टीलाइज़र देने की वजह से भी मिट्टी की सेहत पर बूरा असर पड़ता है। डॉ. भूपेन्द्र सिंह कहते हैं इस वजह से किसान जो भी फ़सल लगाएंगे, उसमें उनको मुश्किल होगी।
डॉ. भूपेन्द्र सिंह ने बताया कि इन तमाम समस्याओं से निपटने का एक आसान हल है Green Manure यानी हरी खाद। इसके तहत खेतों में मई-जून के महीनों में कुछ ऐसी मोटी पत्तेदार फ़सलें लगाई जाती हैं, जो जल्दी पनप जाती हैं। ये खरपतवारों को बढ़ने नहीं देतीं। डेढ़-दो महीने की इन लहलहाती फ़सलों को खेतों में जुताई कर मिला दिया जाता है। इससे खेतों को हरी खाद मिल जाती है और उनका स्वास्थ्य सुधर जाता है। आसान भाषा में कहें तो हरी खाद के उपयोग से रासायनिक उर्वरकों से होने वाली लागत को कम किया जाता है। हरी खाद उस सहायक फसल को कहते हैं, जिसकी खेती मिट्टी में पोषक तत्वों को बढ़ाने और उसमें जैविक पदार्थों को पूरा करने के लिए की जाती है।
कैसे लगाएं हरी खाद फसलें?
डॉ. भूपेन्द्र सिंह ने कहा कि आने वाले खरीफ़ सीज़न के लिए किसान खेतों में हरी खाद के लिए सनई, ढैंचा, लोबिया, मूंग और ग्वार की फसलें लगा सकते हैं। जहां अधिक वर्षा होती है, उन इलाकों में सनई की बुवाई की जाती है। ढैंचा को कम बारिश वाले इलाकों में उगाया जा सकता है। ग्वार की फसल कम वर्षा वाले यानी रेतीली मिट्टी और कम उपजाऊ इलाकों में लगाई जा सकती है। लोबिया को अच्छे जल निकास वाले क्षेत्र में लगा सकते हैं। मूंग और उड़द को खरीफ़ या गर्मी के मौसम में लगाया जाता है।
ढैंचा की फसल के लिए प्रति एकड़ 25 किलो बीज की ज़रूरत होती है। सनई के लिए 32 से 36 किलो प्रति एकड़ चाहिए होता है। मिश्रित फसल में 12 से 16 किलो प्रति एकड़ की बीज की ज़रूरत होती है।
कृषि वैज्ञानिक के अनुसार, हरी खाद वाली फसलों की बुवाई खेत में हल्की सिंचाई या हल्की बारिश के बाद करनी चाहिए। हरी खाद की फसलों की बुवाई का सही समय अप्रैल से जुलाई है। बुवाई से पहले खेत को अच्छी तरह जोतकर भुरभुरा कर लें। बुवाई करने से पहले ज़मीन में अच्छी नमी होनी ज़रूरी है। पंक्ति से पंक्ति का फासला 45 सेंटीमीटर रखना चाहिए। बीज की गहराई 3-4 सेंटीमीटर होनी चाहिए। वहीं बीज को बोने से पहले उसे एक रात के लिए पानी में भिगोकर रखें। फास्फोरस 16 किलोग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से डालें। इसमें नाइट्रोजन वाली खाद का प्रयोग नहीं किया जाता है। हालांकि, पहली बार फसल के विकास के लिए 4 से 6 किलोग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से नाइट्रोजन का प्रयोग कर सकते हैं।
कम लागत में मिले ज़्यादा खाद
डॉ. भूपेन्द्र सिंह ने बताया कि ढैंचा की फसल को जुलाई के पहले हफ़्ते तक जोत कर फिर खेतों में मिलाकर धान की अच्छी पैदावार ली जा सकती है। इनकी पत्तियां वजनदार और घनी होती हैं। फसल तैयार होने में लगभग 40-50 दिनों का समय लगता है। फूल आने से पहले फसल की लंबाई तीन फिट तक हो जाती है। खड़ी फसल को हैरो से बारीक काट कर मिट्टी में मिला देना चाहिए। इसकी कटाई के समय खेत में पानी लगा देना चाहिए। पानी लगने से बहुत जल्दी सड़कर ये मिट्टी में मिल जाता है। मिट्टी की भौतिक संरचना यानी उपज क्षमता को बढ़ाता है। ये प्रक्रिया बहुत ज़्यादा खर्चीली भी नहीं है। बीज और जुताई की लागत लगाकर प्रति एकड़ डेढ़ हज़ार रुपये से ज़्यादा का खर्चा नहीं आता है। इससे सैकड़ों क्विंटल हरी खाद मिलती है। उन्होंने बताया कि इन फसलों को हल या कल्टीवेटर से खेत में पलट कर पाटा से कर सकते हैं। अगर खेत में 5-6 सेंटीमीटर पानी भरा रहता है तो पलटने और मिट्टी में दबाने में कम मेहनत लगती है। जुताई उसी दिशा में करनी चाहिए जिस तऱफ से पौधों को गिराया गया हो। इसके बाद खेत में आठ-दस दिन तक 4-6 सेंटीमीटर तक पानी भरा होना चाहिए।
हरी खाद पोषक तत्वों की करेगा भरपाई
डॉ. भूपेन्द्र सिंह के अनुसार इस तरह ढैंचा से प्रति एकड़ 34-42 किलो नाइट्रोजन प्रति एकड़ प्राप्त की जा सकती है। सनई से 35-52 किलो नाइट्रोजन प्रति एकड़, लोबिया से 30-35 किलो नाइट्रोजन प्रति एकड़, ग्वार से 27-35 किलो नाइट्रोजन प्रति एकड़, मूंग से 14-20 किलो नाइट्रोजन प्रति एकड़ प्राप्त की जा सकती है। दलहनी फसलों वाली हरी खाद की जड़ों में गांठे होती हैं, जो मिट्टी को बांटने का काम करती हैं। खेत में हरी खाद पलटने के बाद जो भी फसल ली जाएगी, उसके पौधों का विकास अच्छा होगा और उसकी गुणवत्ता अच्छी होगी। फसल में रोग संक्रमण भी कम रहेगा।
दरअसल, गेहूं और धान फसल चक्र के चलते ज़मीन की उपजाऊ क्षमता में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। किसी ज़माने में बेहतर फसल चक्र के लिए साल में कम से कम एक दलहनी फसल लगाई जाती थी। आज की तारीख में सालभर में 3 से 4 फसलें तक ली जाती हैं, लेकिन बदले में ज़मीन में डीएपी, यूरिया जैसे रासायनिक उर्वरक डाले जाते हैं। अब ज़रूरत ज़मीन से लेने के साथ ही उसे कुछ वापस देने की भी है।
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