गन्ने की खेती में करें प्राकृतिक हार्मोन्स का इस्तेमाल, पाएँ दो से तीन गुना ज़्यादा पैदावार और कमाई

इथ्रेल और जिबरैलिक एसिड जैसे पादप वृद्धि हार्मोन्स के इस्तेमाल से सिंचाई और अन्य पोषक तत्वों की ज़रूरत भी कम पड़ती है। हालाँकि, यदि सिंचाई और पोषक तत्व भरपूर मात्रा में मिले तो पैदावार अवश्य ज़्यादा होता है, लेकिन इससे खेती की लागत बेहद बढ़ जाती है। गन्ने की पैदावार कम होने का दूसरा प्रमुख कारण कल्लों का अलग-अलग समय पर बनना भी है। यदि कल्लों का विकास एक साथ हो तो वो परिपक्व भी एक साथ होंगे तथा उनका वजन भी ज़्यादा होगा, उसमें रस की मात्रा और मिठास भी अधिर होगी। लिहाज़ा, गन्ने की खेती में यदि कल्ले बेमौत मरने से बचा जाएँ तभी किसान को फ़ायदा होगा।

गन्ने की खेती

गन्ने की खेती | भारत, भले ही गन्ने का सबसे बड़ा उत्पादक हो, लेकिन हमारे खेतों में गन्ने की उत्पादकता 65 से 69 टन प्रति हेक्टेयर की ही मिल पाती है। मिट्टी की पैदावार बढ़ाने के लिए खाद और उर्वरक के इस्तेमाल से लेकर, उन्नत बीज, सिंचाई, उचित देखभाल जैसे खेती के सारे जतन करने के बावजूद अक्सर गन्ना किसानों को मनमाफ़िक मुनाफ़ा नहीं होता। लेकिन गन्ना अनुसन्धान से जुड़े वैज्ञानिकों ने अब ऐसे अनूठे उपाय ढूँढ़ लिये हैं जिससे पैदावार दो से तीन गुना बढ़ सकती है। इन उपायों का नाम है – पादप वृद्धि हार्मोन्स: इथ्रेल और जिबरैलिक एसिड।

क्या होती है हार्मोन्स की भूमिका?

इथ्रेल और जिबरेलिन, प्राकृतिक पादप वृद्धि हार्मोन हैं। इससे गन्ने के तने की लम्बाई बढ़ाने वाली स्टेम कोशिकाओं का विस्तार होता है, जहाँ शर्करा (कार्बोहाइड्रेट) जमा होता है। इस तरह जिबरेलिन के छिड़काव से गन्ने की शर्करा जमा करने की क्षमता और अन्ततः उत्पादन बढ़ता है। लेकिन ध्यान रहे कि किसानों को गन्ने के हार्मोन्स को अपनी मर्ज़ी से अन्य फसलों पर आज़माने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। इससे लेने के देने पड़ सकते हैं।

भारत में गन्ने की खेती की चुनौतियाँ

भारत में गन्ने की कम पैदावार के लिए हमारी भौगोलिक स्थिति बेहद ज़िम्मेदार है। उष्णकटिबन्धीय इलाकों (tropical zone) में बीजों का कम जमाव, कल्लों का अलग-अलग समय पर बनना और तनों का अपर्याप्त विकास गन्ने की उत्तम पैदावार में भारी अड़चनें पैदा करते हैं। बुआई के करीब 45 दिनों बाद जब गन्ने की बढ़वार का वक़्त आता है तब उसकी पत्तियों को जैसे ढकाव या कवर या आच्छादन (ढकाव या cover) की ज़रूरत होती है तब उन्हें अनुकूल वातावरण मिल नहीं पाता। तब तीखी धूप की वजह से पौधों की काफ़ी शक्ति ख़ुद को सलामत रखने में खप जाती है। इसीलिए यदि इथ्रेल और जिबरैलिक एसिड जैसे पादप वृद्धि हार्मोन्स का इस्तेमाल किया जाए तो गन्ने की खेती से जुड़ी अनेक गम्भीर चुनौतियाँ ख़त्म हो जाती हैं और पैदावार दो से तीन गुना ज़्यादा हो जाती है।

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ज़िन्दा रहने में खपती है ज़्यादा ऊर्जा

दरअसल, बढ़वार के दौर में पत्तियों को आच्छादन (ढकाव या cover) की अपेक्षित सुरक्षा नहीं मिलने से गन्ने के पौधों की अधिकतर ऊर्जा प्रकाश संश्लेषण में खप जाती है। उनके लीफ-एरिया-इंडेक्स (Leaf area index) के घटने से पत्तियों का फैलाव, उनकी संख्या तथा तनों और जड़ों का विकास भी धीमा पड़ जाता है। इस दौर में ऊर्जा की भरपायी के लिए पौधे नाइट्रोजन की ख़पत भी ज़्यादा करते हैं, लेकिन उसी अनुपात में पैदावार नहीं दे पाते। तनों में अपेक्षित ऊतक निर्माण नहीं होने से कल्लों की मृत्यु दर भी बहुत ऊँची होती है।

गन्ना किसानों के लिए वरदान हैं हार्मोन्स का इस्तेमाल

इन्हीं चुनौतियों के समाधान के रूप में गन्ना वैज्ञानिकों ने इथ्रेल और जिबरैलिक एसिड जैसे पादप वृद्धि हार्मोन्स का अनूठा प्रयोग किया। इससे न सिर्फ़ गन्ने का जमाव जल्दी हुआ बल्कि कल्लों की मृत्यु दर में भी गिरावट आयी और आख़िरकार, खेत में गन्ने के पौधों की संख्या और उनके औसत भार में भी इज़ाफ़ा हुआ। इस प्रयोग ने किसानों के खेतों में भी शानदार नतीज़े दिये तो तय हुआ कि गन्ने की बावक और पेड़ी फसल पर किसान यदि पादप वृद्धि हार्मोन्स का इस्तेमाल करें तो उन्हें भरपूर उपज मिलेगी और उनकी आमदनी बढ़ेगी।

इथ्रेल और जिबरैलिक एसिड जैसे पादप वृद्धि हार्मोन्स के इस्तेमाल से सिंचाई और अन्य पोषक तत्वों की ज़रूरत भी कम पड़ती है। हालाँकि, यदि सिंचाई और पोषक तत्व भरपूर मात्रा में मिले तो पैदावार अवश्य ज़्यादा होता है, लेकिन इससे खेती की लागत बेहद बढ़ जाती है। गन्ने की पैदावार कम होने का दूसरा प्रमुख कारण कल्लों का अलग-अलग समय पर बनना भी है। यदि कल्लों का विकास एक साथ हो तो वो परिपक्व भी एक साथ होंगे तथा उनका वजन भी ज़्यादा होगा, उसमें रस की मात्रा और मिठास भी अधिर होगी। लिहाज़ा, यदि कल्ले बेमौत मरने से बचा जाएँ तभी किसान को फ़ायदा होगा।

गन्ने की खेती में कब करें हार्मोन्स का इस्तेमाल?

इसीलिए वैज्ञानिकों का मशविरा है कि ऐसे सारे उपाय होने चाहिए जिससे अगस्त-सितम्बर तक पौधे बढ़वार की अधिकतम सीमा को हासिल कर लें। क्योंकि इसके बाद के दौर में प्रकाश संश्लेषण से बनने वाले तत्व शर्करा के रूप में गन्नों के तने में जमा होने लगते हैं और उनका वजन बढ़ता है। इथ्रेल और जिबरैलिक एसिड जैसे पादप वृद्धि हार्मोन्स के इस्तेमाल से गन्ने की कलिकाओं से पौधों का अंकुरन, उनका जमाव और आरम्भिक पौधों की संख्या ज़्यादा होती जाती है।

दो महीने में ही फसल की जड़ें भी ख़ूब विकसित हो जाती हैं। पत्तियाँ ऊर्ध्वाकार होने लगती हैं। इससे उनका निचला हिस्सा भी पूरी क्षमता से प्रकाश संश्लेषण कर पाता है और कल्ले मरते नहीं है। पौधों की संख्या घटती नहीं है। नतीज़तन, पेराई के लिए ज़्यादा गन्ना प्राप्त होता है।

गन्ने की खेती में क्या है हार्मोन्स के इस्तेमाल का असर?

इथ्रेल और जिबरैलिक एसिड के छिड़काव और सूखी पत्तियों को गलाने से पेराई के लिए गन्नों की संख्या और उसमें बनने वाले पोरों की लम्बाई पहली पेड़ी में बढ़ जाती है। इथ्रेल और जिबरैलिक एसिड के प्रभाव से गन्नों की अधिक संख्या प्रति हेक्टेयर प्राप्त करने के लिए स्मार्ट पत्ती आच्छादन होना और इसके अनुकूल ही जड़ तंत्र का विकास होना ज़रूरी है।

इसका असर ये होता है कि जहाँ पादप वृद्धि हार्मोन्स के इस्तेमाल के बाद गन्ने का एक पौधा 331 वर्ग सेंटीमीटर ज़मीन घेरता है, वहीं परम्परागत कंट्रोल विधि में इसे 800 वर्ग सेंटीमीटर ज़मीन की ज़रूरत पड़ती है। इस तरह के ऑर्किटेक्चरल बदलाव से गन्ने की पैदावार जहाँ 255 टन प्रति हेक्टेयर मिलती है, वहीं कंट्रोल विधि की पैदावार 70 से 85 टन प्रति हेक्टेयर की रहती है। साफ़ है कि पादप वृद्धि हार्मोन्स इथ्रेल और जिबरैलिक एसिड के छिड़काव से गन्ने के उसी खेत की पैदावार तीन गुना तक बढ़ सकती है।

गन्ने की खेती
तस्वीर साभार: staticflickr

पेड़ी की गन्ने के लिए भी उपयोगी हैं हार्मोन्स

लखनऊ स्थित भारतीय गन्ना अनुसन्धान संस्थान के वैज्ञानिकों के अनुसार, बसन्तकालीन गन्ने में पादप वृद्धि हार्मोन्स ने शानदार नतीज़े दिये हैं। पेड़ी की फसल से पेराई के लिए प्रति हेक्टेयर 3.06 लाख गन्ना प्राप्त हुआ और इसका वजन 183.2 टन रहा।

इसी तरह शरदकालीन गन्ने में पादप वृद्धि हार्मोन्स के इस्तेमाल से 330 टन प्रति हेक्टेयर की पैदावार प्राप्त हुई, जबकि कंट्रोल में औसतन 129 टन प्रति हेक्टेयर की पैदावार ही मिल पाती है। कंट्रोल विधि में अधिकतम कल्ले 4.59 लाख प्रति हेक्टेयर, उनकी मृत्यु दर 66.7 प्रतिशत, पेराई के लिए प्राप्त गन्नों की संख्या 1.53 लाख प्रति हेक्टेयर और पैदावार 99.8 टन प्रति हेक्टेयर हासिल हुई।

सूखी पत्तियों को सड़ना भी है लाभकारी

गन्ना शोध से जुड़े वैज्ञानिकों ने पाया कि पेड़ी की फसल में भी कटाई के 60 दिनों बाद इथेल का 100 PPM और जिबरेलिक एसिड-3 का 90, 120, 150 दिनों के बाद छिड़काव करने से भी कल्लों की मृत्यु दर घट जाती है। जीवित कल्लों में भी पोरों की लम्बाई और तनों की वृद्धि दर बढ़ जाती है। इसके कारण कंट्रोल विधि की तुलना में 66.5 टन प्रति हेक्टेयर ज़्यादा पैदावार मिली।

यही नहीं, यदि पेड़ी शुरू करने से पहले उसमें गन्नों की सूखी पत्तियाँ फैला दी जाएँ और इन्हें सड़ाने के लिए पूसा कम्पोस्ट इनाकुलेंट (300 ग्राम/टन सूखी पत्ती) डाला जाये तो कल्लों की संख्या 6.73 लाख प्रति हेक्टेयर प्राप्त हुई और उनकी मृत्युदर भी 54.5 प्रतिशत घट गयी।

गन्ने की खेती में करें प्राकृतिक हार्मोन्स का इस्तेमाल, पाएँ दो से तीन गुना ज़्यादा पैदावार और कमाई

कैसे करें गन्ने के हार्मोन्स का इस्तेमाल?

उपरोक्त सभी बातों का ध्यान रखकर इथ्रेल और जिबरेलिक एसिड का प्रयोग करके बीजों के शीघ्र और अधिक जमाव, शुरू की अवस्था में वृद्धि दर तेज़ रखने, कल्लों की बढ़वार एक साथ करवाने, कल्लों की मृत्युदर घटाने और प्रकाश संश्लेषण के अवयवों का वैज्ञानिक उपयोग कर गन्नों की संख्या, उनका औसत भार और उससे मिलने वाली चीनी की मात्रा को बढ़ाने का सफलतापूर्वक प्रदर्शन किसानों के खेतों में भी किया गया।

इथ्रेल और जिबरेलिक एसिड के बारे में ज़्यादा और व्यावहारिक जानकारी के लिए किसानों को अपने नज़दीकी कृषि विकास केन्द्र या कृषि अधिकारी से सम्पर्क करना चाहिए। ताकि, गन्ने की खेती की उन्नत और वैज्ञानिक तकनीकों को अपनाकर किसान अपनी आमदनी को बढ़ा सकें।

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सम्पर्क सूत्र: किसान साथी यदि खेती-किसानी से जुड़ी जानकारी या अनुभव हमारे साथ साझा करना चाहें तो हमें फ़ोन नम्बर 9599273766 पर कॉल करके या [email protected] पर ईमेल लिखकर या फिर अपनी बात को रिकॉर्ड करके हमें भेज सकते हैं। किसान ऑफ़ इंडिया के ज़रिये हम आपकी बात लोगों तक पहुँचाएँगे, क्योंकि हम मानते हैं कि किसान उन्नत तो देश ख़ुशहाल।

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