अंधाधुंध रासायनिक उर्वरक और कीटनाशकों के इस्तेमाल से न सिर्फ़ मिट्टी प्रदूषित होती है, बल्कि जो उपज होती है उसकी पौष्टिकता भी कम हो जाती है। इसके सेवन से सेहत को तो नुकसान पहुंचता ही है, इससे पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचता है। ऐसे में पिछले कुछ समय से प्राकृतिक खेती अपनाने के लिए किसानों का प्रेरित किया जा रहा है। बहुत से किसानों ने पूरी तरह से प्राकृतिक खेती को अपनाया भी है। इसे अपनाकर न सिर्फ़ उनका मुनाफ़ा बढ़ा है, बल्कि अच्छी गुणवत्ता वाली फसल भी प्राप्त कर रहे हैं। आंध्र प्रदेश के विजयनगर ज़िले के कोसरवनिवलासा गांव की महिला किसान हनुमन्थु मुथ्यालम्मा ने भी प्राकृतिक खेती को पूरी तरह से अपनाया। इससे उनकी खेती की लागत कम हुई और मुनाफ़ा बढ़ गया।
प्राकृतिक खेती की तकनीकें अपनाईं
हनुमन्थु मुथ्यालम्मा ने 2018 में 2.5 एकड़ भूमि पर प्राकृतिक खेती शुरू की। उन्होंने प्री-मॉनसून सूखी बुवाई को अपनाया, जिसमें धान (खरीफ़) और दलहन (रबी) के साथ ही 18 अलग-अलग फसलें शामिल है। उन्होंने प्राकृतिक खेती की सभी तकनीकों को अपनाया जिसमें बीजामृत, घनजीवमृत, द्रवजीवमृत, पीएमडीएस (अछादना), ग्रोथ प्रमोटर्स (अंडे अमीनो एसिड, सप्तदान्यकुरा कषाय और वानस्पतिक अर्क) का इस्तेमाल शामिल है। कीट प्रबंधन के लिए कषाय का उपयोग किया।
घनाजीवमृत को 400 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से मिट्टी में डाला। 15 दिनों के अंतराल पर द्रवजीवमृत 200लीटर/एकड़ के हिसाब से डाला। इसके अलावा, बीज उपचार, पत्ती युक्तियों की छंटाई, पीली चिपचिपी प्लेट, फेरोमोन ट्रैप, बर्ड पर्च आदि जैसी सभी तकनीकों का इस्तेमाल किया। कीट प्रबंधन के लिए वानस्पतिक अर्क और फसलों के अच्छे विकास के लिए ग्रोथ प्रमोटर का इस्तेमाल किया। उन्हें 2 साल के ही भीतर ही प्राकृतिक खेती का लाभ दिखने लगा।
प्राकृतिक खेती से हुआ लाभ
प्राकृतिक खेती अपनाने से हनुमन्थु मुथ्यालम्मा की खेती की लागत कम हो गई। मिट्टी की उर्वरता बढ़ गई और गर्मियों के मौसम में मुख्य फसलों की उत्पादकता भी प्री-मॉनसून सूखी बुवाई की बदौलत बढ़ गई। प्री-मॉनसून सूखी बुवाई से प्राप्त चारे को बेचकर अतिरिक्त कमाई हुई। वह चारे का इस्तेमाल पशुओं को खिलाने के लिए करती हैं। वानस्पतिक अर्क के इस्तेमाल से पौधों में कीट व रोगों की संख्या में कमी आई। कई फसलों की खेती के कारण मधुमक्खी और ड्रैगन फ्लाई जैसे उपयोगी कीटों की संख्या में बढ़ोतरी हुई। मिट्टी में केंचुओं की संख्या भी बढ़ गई, जो मिट्टी को अधिक उपजाऊ बनाते हैं।
क्यों ज़रूरी है प्राकृतिक खेती?
प्राकृतिक खेती, खेती की सबसे पुरानी पद्धति है। इसे केमिकल मुक्त खेती भी कहा जाता है, क्योंकि इसमें किसी तरह के रासायनिक खाद व कीटनाशकों का इस्तेमाल नहीं किया जाता है। गोबर की खाद और कुदरती चीज़ों को ही खाद व कीट प्रबंधन के लिए उपयोग में लगाया जाता है। इससे मिट्टी और फसल में किसी तरह के रसायन का समावेश नहीं होता है। फसल गुणवत्तापूर्ण और पौष्टिकता से भरपूर रहती है। इससे मिट्टी का उपजाउपन भी कम नहीं होता और न ही पर्यावरण को किसी तरह की हानी होती है। वर्तमान समय में ग्लोबल वॉर्मिंग ने जिस तरह से पर्यावरण का संतुलन पूरी तरह से बिगाड़ रखा है ऐसे में प्राकृतिक खेती से इसे कुछ हद तक कम करने की कोशिश ज़रूर की जा सकती है। केमकिल वाले अनाज, फल, सब्ज़ियां खाने से जो सेहत को नुकसान पहुंच रहा है, उससे भी बचा जा सकता है।
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