सैनिक स्कूल में पढ़ाई की लेकिन एनडीए और एसएसबी क्लियर करने के बावजूद भारतीय वायु सेना के अफसर बनते बनते रह गए। केंद्र सरकार के संस्थान में मिली नौकरी सिर्फ दो महीने करके ही छोड़ दी। फिर कॉर्पोरेट जगत में आए। देश विदेश घूमे। आखिर में, ऑस्ट्रिया में मल्टीनेशनल कंपनी में मिले अच्छे ओहदे को भी त्याग दिया और देश लौट आए। कश्मीर में पुलवामा के उसी गांव में जहां उनकी और उनके पुरखों की पैदाइश हुई। अब यहां न सिर्फ खुद आधुनिक तौर तरीकों से बागवानी और पशुपालन कर रहे हैं बल्कि लोगों को भी इसकी बारीकियाँ सिखा रहे हैं। ये हैं 42 वर्ष के फ़याज़ अहमद भट। पुलवामा के लेथपुरा गांव में जब उनसे घर में मुलाक़ात हुई तब भी एक बड़े सरकारी मेडिकल कॉलेज के विभागाध्यक्ष और सर्जन उनसे सेब बागान और पौधशाला लगाने के बारे में सलाह मशविरा करने आए हुए थे। डॉ साहब के साथ पढ़ा लिखा उनका नौजवान बेटा था जो खेती बाड़ी या बागवानी से जुड़ा कुछ करना चाहता था। फयाज़ भट उन्हें तरह तरह के आइडिया दे रहे थे।
बी.टेक. (इलेक्ट्रॉनिक्स ) करने के बाद, प्रोफेशनल इंजीनियर फयाज़ अहमद भट ने करियर की शुरुआत लेह के पास हेनल स्थित दुनिया की सबसे ऊँची खगोल भौतिकी वेधशाला में शोधकर्ता के तौर पर की थी। जब 2 महीने बाद ही नौकरी त्यागी तो पशुपालन विभाग में डॉक्टर पिता ने सवाल किया कि ऐसी अच्छी सरकारी नौकरी भला कौन छोड़ता है ? इसका माकूल जवाब तब खुद नौजवान फयाज़ के पास नहीं था तो बताते भला क्या..! हालांकि पशुओं और प्रकृति से प्रेम तो फयाज़ को शुरू से ही था क्योंकि पिता पशु चिकित्सक थे , घर में थोड़ी बहुत पुस्तैनी बागवानी भी थी लेकिन 12 वीं तक नगरोटा के सैनिक स्कूल में ही पढ़ाई की। लिहाज़ा घर से दूर ही रहे। वैसे, ऑस्ट्रिया में मल्टीनेशनल की नौकरी छोड़कर कश्मीर लौटने तक उन्हें पता नहीं था कि उनके पशु – प्रकृति प्रेम में ही उनकी कामयाबी छिपी है। एक ऐसी कामयाबी जो उनको सिर्फ धन और सम्मान ही नहीं दे रही है बल्कि उनके अन्तर्मन को संतुष्टि दे रही है।
हिमाचल प्रदेश के किसान से मिली प्रेरणा और मदद
फयाज़ बताते हैं कि उन्होंने शुरुआत की भेड़ पालन से। इसके लिए आधुनिक फ़ार्म विकसित किया। ख़ास मुनाफा नहीं होने के बावजूद भेड़ पालन जारी है। इसके साथ ही उन्होंने एक निजी मोबाइल कंपनी को तकनीकी और लॉजिस्टिक सपोर्ट देने का काम भी शुरू किया जो अब भी जारी है। ये बेशक उनकी इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बूते मिले ज्ञान से मुमकिन हुआ लेकिन संतुष्टि इससे भी नहीं मिल रही थी। इसमें आमदनी कम नहीं थी और एक कर्मचारी से उद्यमी भी बने। लोगों को नौकरी भी दी लेकिन सुकून नहीं मिल रहा था। परिवार के पास ज़मीन भी थी लेकिन इसका करें क्या और कैसे, ये समझ नहीं आ रहा था। तभी उनके जीवन में एक ट्विस्ट आया। किसी ने उनसे हिमाचल प्रदेश में रहने वाले बागवान राम लाल चौहान से मिलने को कहा। फयाज़ शिमला की कोटखाई तहसील में रहने वाले राम लाल चौहान से मिलने जा पहुंचे। फयाज़ को बताया गया कि राम लाल चौहान सेब के बाग़ से साल में एक करोड़ रुपए कमा लेते हैं। वहां पहुंचे तो देखा कि इस दावे में दम है। राम लाल चौहान के पास टॉप की महंगी कारों में शुमार ‘ रेंज रोवर ‘ भी थी। फयाज़ उनके सेब के उस बागान को देखकर हैरान हुए जो सीढ़ीदार तरीके से पहाड़ की ढलान पर बनाया गया था। फयाज़ कहते हैं कि मैं सोच भी नहीं सकता था कि इस तरह की हालत वाली ज़मीन पर सेब के पेड़ उगा कर अच्छी फसल उगाई जा सकती है। हमारे पास जो ज़मीन है वो तो इससे कई गुना बेहतर हालत में है।
नई शुरुआत
बस इसी घटना ने फयाज़ का जीवन पलट दिया। भेड़ पालन, डेयरी के साथ-साथ 2016 में उन्होंने नई शुरुआत की। पहले विदेश से सेब की बेहतर किस्म के पौधे मंगाए और बाग़ बनाया। साथ ही नर्सरी शुरु की। सरकार ने उनको मान्यता दी और वो विदेश से पौधे मंगा कर यहां के किसानों को बेचने लगे। यही नहीं नए बागवानों को या नए तौर तरीके सीखने के इच्छुक किसानों को हर तरह की मदद मुहैया कराने के लिए बरकत एग्रो फार्म्स के नाम से कंपनी बनाई। ये कंपनी अब मान्यता प्राप्त उन दर्जन भर संगठनों में से एक है जो आधुनिक बागवानी को बढ़ावा दे रही है। फयाज़ भट बताते हैं कि इस सबको यहां करने में उनका विदेश में रहने का और देश विदेश घूमने का अनुभव काम आया। उन्होंने अलग-अलग जगह पर रहहते हुए किसानों के काम करने के कई तरीके देखे थे। विदेश से सेब का पौधा मंगाना काफी महंगा पड़ता था। तब आइडिया आया कि क्यों न इस किस्म के पौधों की सिर्फ जड़ें (root stock ) मंगाई जाएं। ये प्रयोग कामयाब रहा। विदेश से मंगाई गई जड़ों में यहां के पेड़ से काटी गई टहनी ग्राफ्ट करके पौधे विकसित किए गए। इटली के अलावा फ़याज़ भट की कंपनी ने हॉलैंड से भी सेब की किस्म मंगाई हैं। मवेशियों के गोबर की खाद भी इस्तेमाल करने लगे। बिजली की ज़रूरत पूरा करने के लिए सोलर प्लांट लगाया।
विदेशी करंसी की बचत
फयाज़ भट ने सिर्फ अपनी और किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए ही नहीं, अब देश की अर्थव्यवस्था को सीधे मदद करने के मकसद से भी अपनी छोटी सी भूमिका अदा करनी शुरू की है। विदेश से पौधे और प्लांटेशन मैटेरियल आयात करने में विदेशी करेंसी खर्च होती है जो किसी भी देश का नुकसान है। फयाज़ विदेशी जड़ों की मदद से यहां पौधे विकसित करके विदेशी करंसी की भी बचत कर रहे हैं। वो बताते हैं कि एक पौधा खरीदने के लिए 2 यूरो का खर्च आता था। पहले जो एक लाख पौधे वे विदेश से मंगाते थे उसकी संख्या वे धीरे धीरे घटा रहे है और विकल्प के तौर पर उसी क्वालिटी के पौधे यहां विकसित कर पा रहे हैं। उनका लक्ष्य आयात पर निर्भरता घटा कर इस संख्या को 10 हज़ार पर ले आना है। फिलहाल वो इसे घटाकर 30 से 40 हज़ार पर ले आए हैं। इससे पौधे सस्ते भी हुए हैं। जो सेब का एक पौधा पहले 500 रुपये का होता था वो अब 300 रुपये का है।
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फयाज़ भट की बड़ी सोच
कश्मीर में किसानी और बागवानी में बेहतरी और बदलाव लाने की फयाज़ भट की सोच का आसमान भी बढ़ता जा रहा है। वे उपलब्ध साधनों का अधिकतम इस्तेमाल करते हुए समस्याओं का हल खोजने में ज्यादा विश्वास करते हैं। कश्मीर की संस्कृति और परम्परागत अर्थव्यवस्था में अहम रहे ड्राई फ्रूट अखरोट (walnut) की तरफ स्थानीय किसानों की बेरुखी के बारे में उनकी फ़िक्र एक नया उपाय लेकर आई है। दरअसल अखरोट के पेड़ काफी ऊँचे हो जाते हैं और वक्त के साथ साथ ऊंची टहनियों पर भी फल तो लग जाते है लेकिन वे टहनियां इतनी कमज़ोर होती हैं कि उन तक पहुँच कर फल तोड़ना जोखिम भरा होता है। पेड़ के ऊँचे हिस्से से अखरोट उतारने की कोशिश में कई दफा टहनी टूट जाती है और फल तोड़ने वाला गिरकर घायल हो जाता है। यहां तक कि कुछ मामलों में किसानों की मौत भी हुई है। इन पेड़ों की ऊंचाई 30 से 50 फुट तक भी पहुँच जाती है। गिरने के डर से कई बार किसान ऊंचाई वाले फल तोड़ते ही नहीं हैं जिससे सीधा नुकसान होता है। अखरोट के पेड़ की उंचाई के साथ फैलाव भी खूब होती है और इनकी उम्र भी बहुत होती है। साथ ही अखरोट के सही सलामत पेड़ काटने पर मनाही भी है। मुश्किल ये भी है कि पेड़ के नीचे छायादार जगह होने के कारण उस ज़मीन पर कुछ और उगाया नहीं जा सकता है। यानि बागवान को न तो पेड़ के फल का पूरा फायदा मिलता है और न ही उसके नीचे वाली ज़मीन का।
सुरक्षित तरीके से अखरोट की खेती
कश्मीर के पुलवामा, अनंतनाग, शोपियां आदि बड़े हिस्से हैं जहां की मिट्टी और भौगोलिक स्थिति अखरोट की पैदावार के लिए मुफीद है। वहीं अखरोट व्यावसायिक पैदावार के हिसाब से भी अच्छी आमदनी देने वाली फसल है। फयाज़ अहमद भट ने अब अखरोट की खेती के इच्छुक बागवानों को मुसीबत से छुटकारा दिलाने के साथ ही इस फल की पैदावार बढ़ाने का भी प्लान बनाया है। वो यूरोप के लोकप्रिय चैंडलर (chandler) किस्म के अखरोट के पौधे कश्मीर में लाने वाले हैं। अखरोट की हाई डेंसिटी (high density) वाली इस किस्म के पौधे की ऊंचाई तकरीबन दस फुट होती है। इसमें अखरोट टहनी के मुंह (tip) पर नहीं बल्कि टहनी पर लगते हैं और उनका घनत्व भी बहुत होता है। इसकी टहनियां ज्यादा फैलती नहीं हैं यानि आकार भी बड़ा नहीं होता है। लिहाज़ा न तो ज्यादा जगह घेरता है और न ही बहुत छाया होती है। इसलिए आसपास की ज़मीन पर कुछ और उगाने की संभावना रहती है। क्योंकि चैंडलर पेड़ उंचा नहीं होता है इसलिए फल तोड़ने के लिए उस पर चढ़ने की ज़रूरत नहीं होती है। छोटी सी सीढ़ी या स्टूल रखकर उसके सहारे अखरोट उतारे जा सकते हैं। यूरोप में तो चैंडलर अखरोट के पेड़ के तने को मशीन की मदद से तेज़ी से हिलाया जाता है जिससे सारे फल झड़कर नीचे गिर जाते हैं। सबसे बड़ी बात ये है कि चैंडलर पौधा लगाने के 3-4 साल बाद ही अखरोट का फल देना शुरू कर देता है, जबकि वर्तमान परम्परागत नस्ल के अखरोट के पेड़ से फल लेने के लिए किसान को पौधा लगाने के बाद 8 साल तक इंतज़ार करना पड़ता है।
चैंडलर अखरोट (chandler wallnut) बनेगा गेमचेंजर
चैंडलर किस्म का पेड़ पैदावार ही ज्यादा नहीं देता है, इसके अखरोट का छिलका भी पतला और नर्म होता है जैसा कि कागज़ी बादाम का। इसलिए चैंडलर अखरोट की गिरी आसानी से साबुत निकाली जा सकती है। ऐसे में इसकी व्यावसायिक फसल लेने की अपार संभावनाएं हैं। फयाज़ भट की कंपनी ने चैंडलर अखरोट के पौधे भारत लाने के लिए तुर्की की एक कंपनी से करार किया है। उम्मीद है कि दिसम्बर के महीने में ये पौध कश्मीर में आ जाएगी। इसके लिए क्वारंटाइन सुविधा (quarantine facility) विकसित की जा रही है। विदेश से लाये जाने वाले पौधे को किसानों की बागवानी के लिए बेचने से पहले एक निश्चित समय के लिए क्वारंटाइन करना ज़रूरी होता है। ये सरकारी नियम है और सुरक्षित बागवानी के लिए भी ज़रूरी है। इस दौरान पौधे पर स्थानीय आबो हवा, कीटों और खाद व कीटनाशक दवाओं के असर का अध्ययन किया जाता है। इससे बड़े पैमाने पर पौधारोपण से पहले इसकी खामियों को दूर करने में मदद मिलती है। फयाज़ अहमद भट मानते हैं कि चैंडलर किस्म अखरोट उद्योग में गेम चेंजर की भूमिका निभाने की क्षमता रखती है।
फयाज़ बताते हैं कि फिलहाल पुणे की एक कंपनी ने हिमाचल में इस किस्म के अखरोट के पौधे किसानों को दिए हैं लेकिन उस एक पौधे की कीमत 1200 रूपये है जबकि फयाज़ की योजना यहां पर उसी किस्म के पौधे को किसानों को 500 रूपये में मुहैया कराने की है। यही नहीं अब वो चाहते हैं कि प्रकृति से दूर हो रहे बच्चों में जंगल, खेती और पशुपालन में दिलचस्पी जगाई जाए। इसके लिए उन्होंने ख्रिऊ में बाग के एक हिस्से को इस्तेमाल करने की सोची है। स्कूली बच्चों के लिए यहां कैम्प लगाना और साथ ही ईको टूरिज्म के हिसाब से यहां कुछ गतिविधियां किये जाने की काफी संभावनाएं है। जंगल का इलाक़ा बाग़ के साथ है और दोनों तरफ खूबसूरत हरियाली भरे पहाड़ हैं जो सुंदर नज़ारा पेश करते हैं।
इच्छा तो वर्दी धारण करने की थी
फयाज़ अहमद भट का व्यवसायिक सफर उन नौजवानों के लिए प्रेरणा और हिम्मत की मिसाल है जों खेतीबाड़ी से जुड़े परिवारों से ताल्लुक तो रखते हैं लेकिन परम्परागत तौर तरीकों व अन्य स्थानीय कारणों से खेती से संतुष्ट नहीं हैं। कश्मीर में खुद को बेरोजगार समझने वाले ऐसे युवकों के सन्दर्भ में उदाहरण देते हुए फयाज़ कहते हैं कि ऐसे युवक चाहें तो एक एकड़ भूमि पर बने आधुनिक हाई डेंसिटी सेब बागान से साल के 8 लाख रुपये कमा सकते हैं, यानी महीने का तकरीबन 60 हज़ार रुपये। अपने रास्ते खुद बनाने वाले फयाज़ बातचीत के हल्के फुल्के अंदाज़ में बताते हैं कि अगर वायु सेना में गया होता तो शायद करगिल के शहीदों की लिस्ट में नाम होता। खैर कुदरत को जो मंज़ूर होता है वही होता है। दरअसल कलर ब्लाइंडनेस (colour blindness) के कारण हरे और लाल रंग की पहचान में गफलत होती है। उनके आंखों के टेस्ट का नतीजा नेगेटिव रहा था। लिहाज़ा वो सेना का हिस्सा नहीं बन सके थे। फिर आईपीएस बनने की सोची, यूपीएससी परीक्षा देने का विचार आया लेकिन वहां भी ऐसी ही समस्या आ सकती थी लिहाज़ा वर्दी धारण करने का विचार ही त्यागना पड़ा।
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