कृषि विज्ञान की दुनिया में बौने पौधों यानी बोनसाई का निराला मुक़ाम है। बोनसाई तकनीक का जन्मस्थल जापान को माना गया है। लेकिन बोनसाई पौधों के अद्भुत गुणों से प्रेरणा लेकर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (BHU) के कृषि विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकों ने अरहर की ऐसी गुणकारी प्रजाति विकसित की है जो अरहर की खेती करने वाले किसानों के लिए किसी वरदान से कम नहीं है। क्योंकि अरहर की परम्परागत किस्में जहाँ 9 महीने में परिपक्व होती हैं, वहीं बोनसाई अरहर की फसल साढ़े सात महीने में ही तैयार हो जाती है।
सिर्फ़ 2 फ़ीट ऊँची है ये अरहर
BHU के जेनेटिक्स एंड प्लांट ब्रिडिंग विभाग के वैज्ञानिक प्रोफेसर महेन्द्र नारायण सिंह की टीम ने अपनी बोनसाई अरहर की किस्म का नामकरण ‘आशा मालवीय 406’ के रूप में किया है। यह अरहर की बौनी प्रजातियों में से भी सबसे छोटी है। अरहर की परम्परागत किस्मों के परिपक्व पौधों की ऊँचाई जहाँ दो मीटर के आसपास होती है, वहीं ‘आशा मालवीय 406’ की ऊँचाई क़रीब 60 सेंटीमीटर की है। ‘आशा मालवीय 406’ के विशेषताओं से उत्साहित होकर वैज्ञानिकों ने अरहर की इतनी छोटी किस्म को विकसित करने का बीड़ा उठाया है जिसकी ऊँचाई महज एक फ़ीट के आसपास हो।
बौने पौधे में ज़्यादा शाखाएँ और फलियाँ
आकार में बेहद छोटा होने के बावजूद ‘आशा मालवीय 406’ के पौधों में शाखाएँ और फलियाँ भी कहीं ज़्यादा होती हैं। इससे कम लागत में कहीं ज़्यादा पैदावार हासिल होती है। इसीलिए अरहर की इस प्रजाति को ज़्यादा से ज़्यादा पैमाने पर अपनाया जाना चाहिए। प्रोफेसर सिंह के अनुसार, पौधरोपण विधि के तहत यदि अरहर की खेती की जाए तो ‘आशा मालवीय 406’ के पौधों को तैयार करने के लिए प्रति हेक्टेयर आठ से दस किलोग्राम बीज की ज़रूरत पड़ती है। जबकि परम्परागत प्रजातियों के मामले में बीज दर प्रति हेक्टेयर 20 से 25 किलोग्राम होती है।
कम लागत में ज़्यादा पैदावार
अरहर की सबसे उन्नत और बौनी प्रजाति ‘आशा मालवीय 406’ की खेती बलुई और दोमट मिट्टी में की जा सकती है। छिड़काव विधि से इसकी बुआई में प्रति हेक्टेयर 20 किलोग्राम बीज की खपत होती है। इससे 35 से 40 क्विंटल अरहर प्रति हेक्टेयर की पैदावार प्राप्त होती है। जबकि अन्य उन्नत किस्मों की पैदावार प्रति हेक्टेयर 25-30 क्विंटल ही मिलती है।
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बौनी अरहर की किफ़ायती है देखरेख
बौनी प्रजाति की वजह से ‘आशा मालवीय 406’ की देखरेख भी किफ़ायती साबित होती है। क्योंकि इसका पौधा चना और मिर्च जैसी फसलों जितना ऊँचा है। आकार में छोटा होने की वजह से ‘आशा मालवीय 406’ की फसल पर दवाईयों का छिड़काव, देखरेख और तुड़ाई करते वक़्त पौधों के टूटने का ख़तरा नहीं होता। छोटे आकार की वजह से ‘आशा मालवीय 406’ के ज़्यादा पौधों की बुआई कम क्षेत्रफल में की जा सकती है। छोटेपन की वजह से ही इस प्रजाति के पौधे आँधी-पानी जैसी प्राकृतिक आपदाओं के प्रति बेहद सहनशील रहते हैं।
उच्च रोग प्रतिरोधक क्षमता वाली किस्म
आँधी-पानी की वजह से जब ‘आशा मालवीय 406’ के फूल नहीं झरते हैं तो उनमें अरहर की फलियाँ ज़्यादा लगती हैं। इससे फलियों में विकसित हो रही फसल का बेहतर और ज़्यादा उत्पादन प्राप्त होता है। ‘आशा मालवीय 406’ के पौधों में ऐसी अनेक बीमारियों के प्रति उच्च प्रतिरोधक क्षमता भी विकसित की गयी है, जिनका अरहर के खेतों में प्रकोप नज़र आता है। इसीलिए ‘आशा मालवीय 406’ के पौधों में फूल खिलने के दौरान सिर्फ़ एक बार इनडॉक्साकार्ब और स्पाइनोसेड दवा का छिड़काव किया जाता है।
मिट्टी के पोषक तत्वों का भरपूर सदुपयोग
‘आशा मालवीय 406’ की अगली विशेषता ये है कि इसके बौने पौधों की वजह से फसल कटने के बाद पैदा होने वाला कृषि अपशिष्ट भी परम्परागत किस्मों के मुक़ाबले क़रीब 60 प्रतिशत कम निकलता है। इससे मिट्टी के पोषक तत्वों का ज़्यादा सदुपयोग होता है। इस तरह हम पाते हैं कि बुआई से लेकर कटाई तक और लागत से लेकर देखरेख और पैदावार तक ‘आशा मालवीय 406’ का इस्तेमाल करके अरहर की खेती में क्रान्तिकारी बदलाव लाकर किसानों को इसे अपनाने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा प्रेरित होने की ज़रूरत है।
किसानों की तकलीफ़ें घटीं
अरहर की खेती को लेकर आमतौर पर किसानों की तकलीफ़ ये रहती थी कि इसकी अन्य प्रजातियों को परिपक्व होने में जहाँ वक़्त ज़्यादा लगता है वहीं पैदावार कम होती है। यदि फसल पर बीमारियों का हमला हो जाए तो अरहर उगाने का आकर्षण और फ़ीका पड़ जाता था, क्योंकि इससे पैदावार इतनी गिर जाती थी कि किसानों को लगता था कि उनकी लागत निकलता भी मुहाल है। इसलिए वो अरहर की खेती करने से कन्नी काटते थे। लेकिन सौभाग्यवश सन् 2019 में विकसित ‘आशा मालवीय 406’ ने अरहर की खेती से जुड़ी अनेक चुनौतियों को सफ़लता से हल किया है।
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