भारतीय बाग़वानी फसलों में पान के पत्तों (betel leaf) की खेती का अहम स्थान है, क्योंकि देश में पान का खेती का रक़बा 55 हज़ार हेक्टेयर से ज़्यादा का है। करीब 2 करोड़ लोगों की आजीविका पान के व्यवसाय से जुड़ी है। इसका सालाना कारोबार 800 करोड़ रुपये का है। उत्तर-पश्चिमी राज्यों के सिवाय पूरे भारत पश्चिम में पान की खेती होती है। बंगाल, असम, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, ओड़ीशा, त्रिपुरा, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों में तो बड़े पैमाने पर पान की खेती की जाती है।
पान एक नगदी फसल है। इसकी खेती से जुड़े ज़्यादातर किसान छोटे और सीमान्त तबके के हैं। ये दूसरों के खेतों को पट्टे पर लेकर भी पान के पत्तों का उत्पादन करते हैं। पान की खेती को मेहनतकश और संवेदनशील काम माना गया है, क्योंकि पान की फसल को एक ओर ज़्यादा सिंचाई और कम धूप की ज़रूरत पड़ती है तो दूसरी ओर इसे जाड़े में शीतलहरी, गर्मी में लू तथा बारिश में जल भराव जैसी प्राकृतिक आपदाओं से बहुत ख़तरा रहता है। पान की खेती के लिए जिस परम्परागत छायादार ढाँचे या संरक्षण शालाओं की ज़रूरत होती है उसे बरेजा या भीटा या बरेठा कहते हैं।
यदि बरेजा की जगह आधुनिक ‘शेड-नेट हाउस’ (shade-net house) के अन्दर पान की खेती की जाए तो ये पान उत्पादक किसानों के लिए बहुत फ़ायदेमन्द साबित होता है। क्योंकि बरेजा के तुलना में ‘शेड-नेट हाउस’ ज़्यादा टिकाऊ होता है, ये पान के पत्तों को शीतलहर, लू और जल भराव की चपेट में आने से बचाता है। ‘शेड-नेट हाउस’ में पान का उत्पादन करने पर फसल पर रोगों और कीटों के हमले भी कम होते हैं। ‘शेड-नेट हाउस’ में तापमान के नियंत्रण के लिए फॉगर और सिंचाई के लिए ड्रिप इरीगेशन की सुविधाएँ जुटाना आसान होता है। इसके निर्माण के लिए राष्ट्रीय बाग़वानी मिशन की ओर से पान उत्पादक किसानों को अनुदान की सुविधा भी उपलब्ध है।

पान का जन्मस्थान
पान को अँग्रेज़ी में बीटल (betel) कहते हैं। इसका वानस्पतिक नाम पाइपर बीटल है। ये ‘पाइपरेसी’ कुल का सदस्य और बहुवर्षीय, सदाबहार, द्विबीजपत्री, उभयलिंगी लता है। पान का जन्मस्थान मध्य-पूर्वी मलेशिया को माना गया है। वहाँ 2000 साल से इसकी खेती की जाती है। पान की खेती दक्षिण-पूर्वी एशिया में भारत, बांग्लादेश, मलेशिया, श्रीलंका, पाकिस्तान, थाईलैण्ड, सिंगापुर, मालद्वीप, फिलीपीन्स, पपुआ न्यूगिनी, मॉरीशस, म्यांमार और दक्षिण अफ्रीका में की जाती है।
भारत में पान की 100 से ज़्यादा किस्में पायी जाती हैं। मगही, बँगला, कलकतिया, साँची, कर्पूरी, महोबाई, मीठा पत्ता आदि पान की मुख्य भारतीय किस्में हैं। लखनऊ स्थित राष्ट्रीय वनस्पति अनुसन्धान संस्थान (Council Of Scientific and Industrial Research–National Botanical Research Institute, CSIR–NBRI) के पान विशेषज्ञों ने पान के पत्तों की संरचना और उसमें मौजूद वाष्पशील तेलों के रासायनिक गुणों के आधार पर प्रमुख किस्मों का वर्गीकरण किया है।
पान के औषधीय गुण
पान के पत्तों में ‘हाइड्रोक्सीकेविकोल’ और ‘यूजिनॉल’ जैसे कैंसररोधी और औषधीय महत्व वाले वाष्पशील तेल पाये जाते हैं। इसके अलावा पान में अमिनो अम्ल, कार्बोहाइड्रेट, खनिज लवण, कैल्सियम, फ़ॉस्फोरस, आइरन और विटामिन भी होते हैं। पान के पत्ते के रस को कफ़नाशक, कृमिनाशक, कामाग्नि संदीपक और साँस सम्बन्धी तकलीफ़ों के इलाज़ में उपयोगी पाया गया है। पान का पत्ता मुँह में दुर्गन्ध पैदा करने वाले बैक्टीरिया के असर को घटाता है। पान में प्रयोग होने वाले कत्था, लौंग, इलायची और सौंफ वग़ैरह भी मुँह को सुवासित रखने में सहायक होते हैं।
पान का सेवन पाचन में सहायक होता है। यह मुँह की लार ग्रन्थियों की सक्रियता बढ़ाता है जो भोजन को छोटे-छोटे टुकड़ों में पाचन को आसान बनाता है। इसीलिए कब्ज़ से जूझने वालों के लिए पान के पत्ते चबाना लाभदायक होता है। पान बलगम को भी हटाता है। मसूड़ों में गाँठ या सूजन होने पर इसका इस्तेमाल फ़ायदेमन्द होता है। सोने से पहले पान को नमक और अजवायन के साथ मुँह में रखने से नींद अच्छी आती है। इसे शहद के साथ मिलाकर खाने से सर्दी-ज़ुकाम में फ़ायदा मिलता है।
पान के वाष्पशील तेलों में एनलजेसिक यानी दर्दनिरोधक गुण होते हैं। इससे सिरदर्द में आराम मिलता है। मोंच या चोट लगने पर भी पान के साथ हल्दी और सरसों के तेल का लेप लगाने से आराम मिलता है। सूखी खाँसी की तकलीफ़ में भी पान का सेवन लाभकारी होता है। पान के पत्तों का इस्तेमाल कत्था-चूना के बीड़ों के अलावा अनेक धार्मिक कर्मकांडों, उत्सवों और मांगलिक अवसरों पर भी होता है।

पान की खेती की उन्नत तकनीक
पान की खेती के लिए 15 से 40 डिग्री सेल्सियस का तापमान मुफ़ीद होता है। इसे अत्यधिक नमी और कम धूप की ज़रूरत होती है। इसीलिए दक्षिण और उत्तर-पूर्वी भारत में पान की खेती सुपारी के पेड़ों वाले खेतों में भी खुले आकाश के नीचे की जाती है, क्योंकि सुपारी के ऊँचे पेड़ों की छाया में पान को उतनी ही धूप मिलती है, जितनी कि उसे चाहिए। लेकिन उत्तर भारतीय राज्यों में पान की खेती के लिए ख़ास तरह की छायादार झोपड़ीनुमा ढाँचा बनाया जाता है। इसे पान की लताओं का संरक्षणशाला या बरेजा कहते हैं। परम्परागत तौर पर बरेजा को बाँस, अरहर या जूट के डंठलों, धान का पुआल, सरकंडा (इकरी) और नारियल के रस्सी के उपयोग से बनाया जाता है।
बरेजा की छत या छप्पर को माड़ो, मड़वा, छानी या ठठरा कहते हैं। इससे पान की लताओं पर धूप छनकर या कम मात्रा में पहुँचती है। बरेजा की चारों तरफ की दीवारों को टाट या ठाट कहते हैं। ये पान की फसल को शीतलहर और लू से बचाता है। बरेजा से घिरे खेत में नाप-जोख करके एक मीटर के फ़ासले पर 3-4 मीटर लम्बे बाँस को ज़मीन में गाड़ते हैं और फिर क़रीब 2.5 मीटर की ऊँचाई पर बाँस की सवियों को लम्बाई और चौड़ाई दोनों तरफ से बाँध कर छप्परनुमा आकार दिया जाता है। छप्पर की छत पर धान का पुआल डालने के बाद बरेजा की चारों दीवारों को टाट से घेर देते हैं।

इस तरह, बरेजा बनाना एक मेहनत का और खर्चीला काम है। इसकी मरम्मत पर भी हर साल किसानों को खर्च करना पड़ता है। ज़्यादा ठंड या गर्मी के मौसम में बरेजा को अतिरिक्त रूप से दमदार बनाना पड़ता है। ताकि बरेजा के भीतर का तापमान सही दायरे में बना रहे। लेकिन यदि आधुनिक और उन्नत तकनीक वाले ‘शेड-नेट हाउस’ का इस्तेमाल किया जाए तो सालों-साल के लिए बरेजा बनाने के झंझट से छुटकारा मिल जाता है।
‘शेड-नेट हाउस’ भी उसी तकनीक से काम करते हैं जैसे पॉली हाउस काम करते हैं। परम्परागत बरेजा बनाकर उसमें पान की खेती करने वाले किसानों को चाहिए कि आधुनिक ‘शेड-नेट हाउस’ बनाकर अपनी लागत को घटाकर उत्पादन बढ़ाएँ। इसके निर्माण के लिए राष्ट्रीय बाग़वानी मिशन की ओर से दिये जाने वाले अनुदान को हासिल करने के लिए किसानों को अपनी नज़दीकी कृषि अधिकारियों या कृषि विज्ञान केन्द्र से सम्पर्क करना चाहिए।
सम्पर्क सूत्र: किसान साथी यदि खेती-किसानी से जुड़ी जानकारी या अनुभव हमारे साथ साझा करना चाहें तो हमें फ़ोन नम्बर 9599273766 पर कॉल करके या [email protected] पर ईमेल लिखकर या फिर अपनी बात को रिकॉर्ड करके हमें भेज सकते हैं। किसान ऑफ़ इंडिया के ज़रिये हम आपकी बात लोगों तक पहुँचाएँगे, क्योंकि हम मानते हैं कि किसान उन्नत तो देश ख़ुशहाल।

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