कनोला सरसों (Rapeseed or Canola): खाना बनाने के लिए हमारे देश में कई तरह के तेल का इस्तेमाल होता है जैसे, नारियल, मूंगफली, सरसों, तिल, सोयाबीन, रिफाइन ऑयल, राइस ब्रान ऑयल, तिल का तेल और सरसों तेल। सेहत के प्रति सचेत लोग ऑलिव ऑयल इस्तेमाल करते हैं, जबकि उत्तर भारत के कई राज्यों में सरसों तेल का प्रमुखता से इस्तेमाल किया जाता है।
वैसे तो सरसों के तेल (Musturd Oil) को सेहत के लिए अच्छा माना जाता है, लेकिन बाकी तेल की तरह ही इसमें भी सैचुरेटेड फैटी एसिड होता है, जिसकी मात्रा 10 प्रतिशत से अधिक होती है। हमारी ऊर्जा की ज़रूरत को पूरा करने के लिए ये एसिड ज़रूरी है, मगर विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, इसकी मात्रा 10 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए।
पारंपरिक सरसों के लिए में इरूसिक एसिड की मात्रा बहुत अधिक होती है, जो सेहत के लिए हानिकारक है। इसलिए सरसों की कनोला किस्म विकसित की गई जिसमें यह मात्रा बहुत कम होती है।
सरसों और कनोला तेल में अंतर
सरसों के तेल और कनोला तेल (Canola Oil) में मुख्य अंतर है इरूसिक एसिड की मात्रा। सरसों तेल में ये 47 प्रतिशत तक होती है, जबकि कनोला में ये बहुत कम होती है। इसलिए इसे सेहत के लिए अच्छा माना जाता है, जानकारों का कहना है कि ये बीमारियों से बचाने में मददगार है। कनोला को सफेद सरसों या रेपसीड भी कहा जाता है। एक शोध के मुताबिक, रोज़ाना डायट में 2 चम्मच कनोला का तेल लेने से दिल संबंधी बीमारियों का खतरा कम हो जाता है और ये पेट की चर्बी कम करने में भी मददगार हैं।
कनोला सरसों (सफेद सरसों)
पूरी दुनिया में पिछले 5 दशक में कम इरूसिक एसिड वाली सरसों की कई किस्में विकसित की गईं। इसके साथ ही कई ऐसी किस्में भी विकसित हुई हैं जिसमें कम इरूसिक एसिड के साथ ही तेल निकालने के बाद बची खली में ग्लुकोसिनोलेट्स की मात्रा भी 30 माइक्रोमोल्ज़ प्रति ग्राम से कम है। खली जानवरों को खिलाई जाती है, इसमें ग्लुकोसिनोलेट्स अधिक होने से जानवरों को कई तरह की स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं। सरसों की इन विकसित किस्मों को ही कनोला या डबल ज़ीरो या डबल लो के नाम से जाना जाता है। विश्व में ये किस्म सबसे पहले कनाडा में विकसित हुई थी और यहीं से कनोला शब्द प्रचलन में आया।
ऑलिव ऑयल की तरह है हेल्दी
कनोला के तेल में इरूसिक अम्ल की मात्रा तो कम है ही साथ ही ओलिक एसिड की मात्रा अधिक होती है, जो आमेगा-9 फैटी एसिड है। ये दिल की बीमारियों और कोलेस्ट्रॉल को कम करने में मददगार है। ऑलिव ऑयल में भी ओलिक एसिड की मात्रा अन्य तेल से अधिक होती है, इसलिए कनोला के तेल को ऑलिव ऑयल की तरह ही सेहत के लिए अच्छा माना जाता है और इसके इस्तेमाल की सलाह दी जाती है। जापान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड जैसे देशों में तो 2 प्रतिशत से अधिक इरूसिक एसिड वाले सरसों के तेल पर प्रतिबंध लगा है। इसका उपयोग सिर्फ बायोफ्यूल के लिए किया जाता है।
भारत में विकसित कनोला की किस्में
भारत में भी तेल में कम इरूसिक अम्ल और खली में ग्लुकोसिनोलेट्स (Glucosinolates) वाली कनोला की किस्में विकसित की जा चुकी हैं। पंजाब कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना, विश्वस्तरीय मापदंडों के मुताबिक, गोभी सरसों की कनोला डबल ज़ीरो किस्में जीएस-5, जीएस-6, जीएस-7 और दो हाइब्रिड किस्में विकसित की हैं। इसी तरह पंजाब कृषि विश्वविद्यालय ने राया की पहली कनोला किस्म आरएलसी-3 और हाइब्रिड किस्म आरसीएच-1 विकसित की है। पंजाब में ज़्यादातर सरसों की कनोला किस्म की ही खेती हो रही है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली ने भी राया की कनोला किस्में पीडीजैड-1 यानी पूसा मस्टर्ड-31 और पूसा मस्टर्ड-33 विकसित की है।
अधिक कीमत
कनोला सरसों के स्वास्थ्य लाभ को देखते हुए देश के बड़े शहरों की बड़ी-बड़ी दुकानों पर कनाडा से आयात किए गए कनोला तेल (Canola Oil) के कई ब्रांड मौजूद हैं। इन तेलों की कीमत आम सरसों के तेल से दोगुनी होती है। कनाडा सहित दुनिया के कई अन्य उत्पादक देशों में कनोला सरसों (सफेद सरसों) की सिर्फ जेनेटिकली मॉडिफाइड यानी ट्रांसजेनिक किस्मों का ही उत्पादन होता है।
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित सरसों की कनोला किस्म (Canola Variety) के तेल और आयातित कैनोल तेल की गुणवत्ता में कोई अंतर नहीं है। यदि भारत में बड़े पैमाने पर कनोला की खेती की जाती है, तो पर्याप्त तेल का उत्पादन देश में ही हो सकता है जिससे हमें आयात पर निर्भर रहने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। इसके लिए किसानों को कनोला की खेती के लिए प्रेरित करने की ज़रूरत है।
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