हिमाचल प्रदेश की लाहौल और स्पीति घाटी में खेती करना किसानों के लिए आसान नहीं है, क्योंकि यहां बर्फबारी अधिक होती है और सिंचाई के संसाधन सीमित है। मध्य अप्रैल से मध्य अक्टूबर तक का समय ही यहां खेती के लिए उपयुक्त माना जाता है। इससे आदिवासी किसान सिर्फ़ एक ही फसल उगा पाते हैं। वह हरी मटर की खेती करते हैं और कुछ इलाकों में किसान मटर की कटाई के बाद कम अवधि में तैयार होने वाली सरसों की स्थानीय किस्म उगाते हैं, जिसकी उपज क्षमता बहुत कम है।
2011-12 में कृषि विज्ञान केंद्र ने किसानों की समस्या के समाधान के लिए सरसों की अलग-अलग जल्दी तैयार होने वाली किस्मों का परीक्षण और प्रदर्शन किया। साथ ही तोरिया की खेती के प्रसार के लिए भी कृषि विज्ञान केंद्र ने फ्रंट लाइन प्रदर्शन किए और इसका नतीजा सकारात्मक रहा।

तोरिया की सफल खेती
तोरिया फसल की खेती के मानकीकरण के बाद कृषि विज्ञान केन्द्र ने लाहौल और स्पीति घाटी में इसके प्रसार के लिए 231 फ्रंटलाइन प्रदर्शन (FLD) किए। तोरिया की खेती पर किसानों को प्रशिक्षण दिया। ट्रेनिंग में उन्हें तोरिया में खरपतवार प्रबंधन, एकीकृत पोषक तत्व और रोग प्रबंधन जैसे विभिन्न पहलुओं की जानकारी दी गई।
तोरिया की उन्नत किस्म का चुनाव
फ्रंटलाइन प्रदर्शन के नतीजों से साफ़ हो गया कि इलाके में तोरिया की सफल खेती की जा सकती है। इसकी उपज में औसत वृद्धि 28 से 71 प्रतिशत तक हो सकती है। तोरिया की सी.वी. भवानी किस्म की खेती करके लाहौल घाटी के किसानों की आय 40 हज़ार रुपये प्रति हेक्टेयर बढ़ गई। पट्टन घाटी में एईएस-1 के कुछ हिस्सों में तोरिया की फसल दोगुनी तेज़ी से बढ़ी और तोरिया की भवानी किस्म अब घाटी के आदिवासी किसानों के बीच बहुत लोकप्रिय हो चुकी है, तभी तो करीब 80 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में इसकी खेती हो रही है।

कम समय में अधिक पैदावार
लाहौल और स्पीति, हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी ज़िले हैं और खेती के लिए यहां का मौसम बहुत उपयुक्त नहीं है। यहां बारिश ज़्यादातर सर्दियों के मौसम में होती है और पूरे साल खेती तभी संभव है, जब सिंचाई की उपयुक्त व्यवस्था हो। आमतौर पर यहां सिंचाई का मुख्य स्रोत बर्फ़ का पिघला पानी है। इसलिए यहां के किसानों के लिए कृषि विज्ञान केन्द्र ने मटर की कटाई के बाद दूसरी कम समय में अधिक उपज देने वाली फसल के रूप में पहले सरसों की किस्मों पर रिसर्च की और फिर तोरिया पर अध्ययन किया। इन किसानों के लिए सरसों की तुलना में तोरिया की खेती अधिक फ़ायदेमंद साबित हो रही है।
उन्नत किस्म के चुनाव से फसल उत्पादकता बढ़ी
कृषि विज्ञान केन्द्र ने घाटी में 2012-13 से 2016-17 के दौरान 56 गाँवों में 231 फ्रंटलाइन प्रदर्शन का संचालन करके किसानों को तोरिया की खेती की पूरी जानकारी दी। तोरिया की स्थानीय किस्म से जहां प्रति हेक्टेयर 5.6-7.8 क्विंटल फसल प्राप्त होती है, वहीं तोरिया की भवानी किस्म से 9.2-10.0 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक फसल प्राप्त होती है।
भवानी किस्म कम अवधि में अधिक उपज देने वाली है, जिससे घाटी के आदिवासी किसानों को बहुत फ़ायदा हुआ। वह 40 हज़ार रुपये प्रति हेक्टेयर की अतिरिक्त आय प्राप्त करने में सफल हुए।

ज़िले को तीन कृषि पारिस्थितिक स्थितियों (AES-1 से AES-3) में विभाजित किया गया। केवीके के सुझाव के बाद किसानों को एईएस-1 (AES-1) के कुछ हिस्सों में अतिरिक्त आय प्राप्त करने के लिए मटर की फसल की कटाई के बाद जुलाई के दूसरे सप्ताह में अधिक उपज देने वाली तोरिया की भवानी किस्म उगाने की सलाह दी गई। नतीजतन, लाहौल घाटी के किसानों ने मटर की कटाई के बाद इस किस्म की तोरिया की खेती शुरू कर दी, जिससे उनकी आमदनी में इज़ाफा हुआ।
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