बांस एक अद्भुत वनस्पति है। विलक्षण पेड़ है। गुणों की खान है। असंख्य कृषि उत्पादों में शायद ही कोई पेड़-पौधा ऐसा हो जिसके उपयोग का दायरा बांस जितना व्यापक हो। इसीलिए बांस की खेती में व्यावहायिक और नकदी फसल वाली सारी ख़ूबियाँ मौजूद हैं। बांस की खेती जहाँ ख़ूब बारिश वाले इलाकों में हो सकती है, वहीं ये कम बारिश वाले या लद्दाख जैसे नगण्य बारिश वाले इलाके और यहाँ तक कि बंजर या ऊसर ज़मीन पर भी हो सकती है। अलबत्ता, ये ज़रूर है कि उपजाऊ ज़मीन के मुकाबले घटिया ज़मीन पर बांस की पैदावार में ज़रा ज़्यादा वक़्त लग सकता है।
बांस में रोग–कीट का ख़तरा नहीं
बांस की फसल में आसानी से रोग और कीट नहीं लगते। इसे जानवरों से नुकसान पहुँचने का भी खतरा नहीं रहता। एक बार बांस लगाने के बाद इसकी उपज न सिर्फ़ पीढ़ी दर पीढ़ी मिलती है, बल्कि ये लगातार बढ़ती भी रहती है। इसीलिए बांस को ‘हरा सोना’ भी कहते हैं। अन्य फसलों की तरह बांस के खेत को बार-बार तैयार करने की नौबत नहीं आती। इसे किसी ख़ास देखरेख की भी ज़रूरत नहीं पड़ती। ये बहुत कम लागत में शानदार कमाई देता है। बाँस की खेती को महज 15 हज़ार रुपये प्रति एकड़ की लागत से शुरू कर सकते हैं जिससे सालाना डेढ़ से दो लाख रुपये की कमाई हो सकती है।
किसानों का कमाऊ पूत है बांस
बांस की फसल एक बार लगाने के बाद चौथे साल में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। यानी, चौथे साल से बांस के पेड़ किसानों के ऐसे कमाऊ पूत बन जाते हैं जो न सिर्फ़ उसे पूरी ज़िन्दगी आमदनी देते हैं बल्कि उसके नाती-पोतों और यहाँ तक कि परपोतों को भी कमाई देते रहते हैं। चार साल के दौरान बाँस के एक पौधे से कम से कम 40 बड़े और अच्छे बांस पनप जाते हैं।
चौथे साल में सभी बांस नहीं काटे जाते, बल्कि सिर्फ़ पूरी तरह से विकसित बांसों को ही काटते हैं। इसकी कटाई 10+2 विधि से करते हैं। पहले साल 10 परिपक्व बांस को काटते हैं। दूसरे साल में जहाँ कटाई हो चुकी है वहाँ नये बांस पनपने लगते हैं और अब अगले 12 बांसों को काटते हैं तो तीसरे साल 14 बांस काटने लायक हो जाते हैं। इस तरह बैंकों का ब्याज़ की तरह साल दर साल बांस की पैदावार बढ़ती चली जाती है।
सालाना 25% बढ़ती है पैदावार
कटाई के पहले साल प्रति एकड़ से 40 से 50 टन वजन के बाँस की पैदावार मिलती है। फिर ज्यों-ज्यों बांस की उम्र बढ़ती है, उसका आकार और वजन भी सालाना 25 प्रतिशत की दर से बढ़ता जाता है। तीसरे साल की कटाई तक पैदावार 100 टन के आसपास तक पहुँच जाती है। यदि किसान पेपर या फर्नीचर उद्योग को सीधे अपनी फसल बेचे तो उसे 4.5 से 5 हज़ार रुपये प्रति टन का दाम मिल जाता है। बांस की खेती में अगर दो लाइन के बीच 15 फ़ीट और दो पौधे के बीच 8 फ़ीट की दूरी रखी जाए तो इसके साथ सहफसली खेती का भी फ़ायदा मिल सकता है। यानी, बांस के साथ अन्य फसलों की उपज भी ली जा सकती है।
बांस का बाज़ार कभी मन्दा नहीं पड़ता
बाँस सदाबहार है इसलिए इसका बाज़ार कभी मन्दा नहीं पड़ता। बाँस की तरह पेपर इंडस्ट्री, फ़र्नीचर और हस्तशिल्प उद्योग इसकी माँग पूरे साल और सालों-साल रहती है। इसके कचरे से लकड़ी का कोयला बनाया जाता है। सदियों से बांस को परम्परागत भवन निर्माण सामग्री के लिहाज़ से अतुलनीय स्थान हासिल है।
ग्रामीण जीवन में पल-पल पर बांस की ज़रूरत पड़ती है। किसान इसे छोटे पैमाने पर भी पैदा कर सकते हैं और बड़े तथा व्यावसायिक स्तर पर भी। सरकार भी बैम्बू मिशन (Bamboo Mission) के तहत बांस की खेती को प्रोत्साहित करती है क्योंकि इसमें किसानों की अतिरिक्त आमदनी का ज़रिया बनने की बेजोड़ क्षमता है।
बेजोड़ ऑक्सीजन प्लांट हैं बांस
भारत में बांस की पैदावार का क्षेत्रफल करीब 90 लाख हेक्टेयर है। देश के कुल बांस उत्पादन में पूर्वोत्तर राज्यों की हिस्सेदारी दो-तिहाई की है। देश के कुल क्षेत्रफल में वन-क्षेत्र का हिस्सा 14.01 प्रतिशत है और कुल वन-क्षेत्र में से 11.7 प्रतिशत पर बांस पाया जाता है। बाँस की ये भी ख़ूबी है कि ये जहाँ घने जंगलों में ख़ूब पनपते हैं वहीं सामान्य खेतों में इनका बढ़िया विकास होता है।
बांस की अनेक प्रजातियाँ हैं जिससे इसके मूल्यों और उपयोगों की एक विस्तृत शृंखला बनती है। ये जैव विविधता के संकेतक हैं और मिट्टी के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्रकाश संश्लेषण के दौरान अन्य पेड़ों की तुलना में बांस चार गुणा ज़्यादा ऑक्सीजन पैदा करते हैं।
दुनिया में करीब 2.5 अरब लोगों की आजीविका बांस से जुड़ी हुई है। इसका वैश्विक व्यापार करीब 25 लाख डॉलर या 200 करोड़ रुपये का है। परम्परागत रूप से बांस का इस्तेमाल ईंधन, भोजन, ग्रामीण आवास, आश्रय, बाड़ लगाने, काग़ज़ निर्माण के लिए लुगदी बनाने जैसे असंख्य काम के लिए औद्योगिक कच्चे माल के रूप में होता है। बांस को ‘ग्रीन गैसोलीन’ भी कहते हैं। असम में इससे अभी सालाना 6 करोड़ लीटर इथेनॉल का उत्पादन हो रहा है।
अद्भुत हैं बांस के फूल
बांस के पौधे की सबसे बड़ी विशेषता इसका फूल है। बांस में फूल का खिलना एक अनोखी और दुर्लभ घटना है। इसकी ज़्यादातर प्रजातियाँ 60 से 130 साल में एक बार फूल देती हैं। पुष्पित होने के बीच इतना लम्बा अन्तराल वनस्पति विज्ञानियों के लिए अब भी बेहद कौतूहल भरा ही बना हुआ है। ये आनुवंशिक तौर पर बेहद ताक़तवर होते हैं। अत्यधिक धीमी गति से फूल देने वाली प्रजातियों का एक और व्यवहार अनूठा होता है। दुनिया भर में इनका भौगोलिक स्थान और जलवायु भिन्न होने के बावजूद ये सभी एक ही समय में फूल देते हैं।
बांस का ऐसा आनुवंशिक शृंगार बेहद आश्चर्यजनक है। इसीलिए माना जाता है कि ज़्यादातर बांस किसी न किसी तरह से एक ही मदर प्लांट से विकसित हुए हैं। ये बदलते दौर के साथ विभाजित होते रहे और दुनिया भर में साझा होते रहे। इसलिए बांस के एकरूप विभाजन वाले पेड़ में जब उत्तरी अमेरिका में फूल खिलते हैं तभी एशिया में ऐसा ही होता है। इससे ये माना गया कि बांसों की जैविक घड़ी में अनुवांशिकता का ‘प्रीसेट अलार्म’ बहुत पुख़्ता और स्थायी है तथा ये मौसम और जलवायु पर निर्भर नहीं है।
दुर्लभ हैं बांस के फूल
बांस में तीन प्रकार के फूल पाये जाते हैं जो काफ़ी हद तक प्रजातियों और परिस्थितियों पर निर्भर करते हैं: निरन्तर फूल, छिटपुट फूल और उग्र या भड़कीला फूल। बांस के अज़ीबोग़रीब फूल अपने बीजारोपण व्यवहार के कारण उसे एक दिलचस्प समूह में स्थापित करते हैं। बांस के सुधार कार्यक्रमों और बड़े पैमाने पर वनीकरण के लिए बड़ी मात्रा में बीज की आवश्यकता होती है, लेकिन कई प्रजातियों में फूल, पौधा रोपण का पैटर्न और ‘जर्मप्लाज्म तथा कॉहोर्ट’ संग्रह की कमी इसे बेहद मुश्किल बना देती है।
जीवनचक्र, बीज आकृति विज्ञान, बीज के अंकुरण और जर्मप्लाज्म संरक्षण के लिए बांस के बीजों पर दीर्घकालिक शोध होना एक बड़ी वैज्ञानिक चुनौती है क्योंकि ज़्यादातर बांस अपनी शाखाओं और पत्तियों से उत्पन्न होते हैं। यहाँ तक कि एक बार काटे जाने के बाद उनमें फिर से बढ़ने का गुण भी पाया जाता है।
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